॥ भाग्य और पुरुषार्थ के भेद ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं...

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥
(गीता ३/८)
व्यक्ति को अपना नियत कर्तव्य-कर्म ही करना चाहिये क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तो वर्तमान जीवन-यात्रा सफ़ल नही हो सकती है।


प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
(गीता ३/२७)
जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं, अहंकार के प्रभाव से मोह-ग्रस्त होकर अज्ञानी मनुष्य स्वयं को कर्ता समझता है।

हमने संतो के मुख से सुना है और शास्त्रों में पढ़ा भी है कि हमारे पुरूषार्थ से ही हमारा भाग्य बनता है, इस सत्य को सभी जानते हैं। क्या हमने इस सत्य को वास्तविक रूप में समझा भी हैं?

हमारे पूर्व जीवन के कर्म के फलों को "भाग्य" कहते हैं और वर्तमान जीवन में किये गये कर्म को "पु्रूषार्थ" कहते हैं। हम प्रत्येक क्षण भाग्य को भोगते हैं और हम प्रत्येक क्षण पुरूषार्थ भी करते हैं।

हमारे ’शरीर’ के द्वारा जो क्रिया होती है वह हमारे भाग्य के अधीन होती है और हमारे ’मन’ के द्वारा जो क्रिया होती है वह हमारे स्वयं के अधीन पुरूषार्थ के रूप में होती है।

हमारे शरीर की क्रिया प्रकृति के गुणों के द्वारा स्वतः ही होती है, लेकिन मिथ्या अहंकार के कारण हम उसी को हम पुरूषार्थ समझ लेते हैं, जबकि मन की क्रिया स्वभाव के अनुरूप हमारे पुरूषार्थ द्वारा होती है।

हमारे द्वारा पूर्व जीवन में किया गया पुरूषार्थ ही हमारे वर्तमान जीवन में भाग्य के रूप परिवर्तित हुआ हैं और हमारे वर्तमान जीवन में होने वाला पुरूषार्थ हमारे अगले जीवन के भाग्य के रूप में परिवर्तित होगा।

प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है, जैसी क्रिया होती है वैसी प्रतिक्रिया होती है, क्रिया कर्म स्वरूप ’पुरुषार्थ’ होती है और प्रतिक्रिया फल के रूप में ’भाग्य’ होती है। क्रिया व्यक्ति के अधीन होती है और प्रतिक्रिया प्रकृति के गुणों के अधीन होती है।

जब भाग्य अनुकूल होता हैं तो वर्तमान पुरूषार्थ का फल प्रत्यक्ष दिखलाई देता है, वास्तव में यह वर्तमान पुरुषार्थ का फल नहीं होता है, अहंकार के कारण व्यक्ति इसे वर्तमान पुरुषार्थ का फल समझ लेता है।

वास्तव में सत्य यह है कि वर्तमान पुरूषार्थ से तो व्यक्ति का अगले जीवन का भाग्य निर्माण होता है। जो व्यक्ति भाग्य के भरोसे बैठकर पुरूषार्थ करने बचने का प्रयास करते है उनका अगला जीवन अत्यन्त कष्टप्रद होता है।

शास्त्रों में मनुष्य के लिये पुरूषार्थ के चार चरण बतलायें गये हैं।

१. धर्मः- शास्त्रों में वर्णित प्रत्येक व्यक्ति के अपने "नियत कर्म यानि कर्तव्य-कर्म" देश, समय, स्थान, वर्ण और वर्णाश्रम के अनुसार करना ही "धर्म" कहलाता है, धर्म प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग और निजी होता है।

२. अर्थः- किसी को भी कष्ट दिये बिना, किसी को धोखा दिये बिना आवश्यकता के अनुसार धन का संग्रह और उपयोग करना "अर्थ" कहलाता है, अर्थ को संग्रह करने का प्रयत्न आवश्यकता के अनुसार ही करना चाहिये, प्रयत्न करके आवश्यकता से अधिक प्राप्त धन से अधर्म ही होता हैं।

३. कामः- शास्त्रों के अनुसार कामनाओं की पूर्ति करने से ही सभी भौतिक कामनायें मिट पाती हैं, कामनाओं की पूर्ति में ही कामनाओं का अन्त छिपा होता है, जब सभी कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जाते हैं, जब केवल ईश्वर प्राप्ति की कामना ही शेष रहती है, तभी जीव भगवान की कृपा का पात्र बन पाता है।

४. मोक्षः- धर्मानुसार सभी कामनाओं का सहज भाव से अंत हो जाना ही "मोक्ष" कहलाता है, भगवान की कृपा प्राप्त होने पर ही सम्पूर्ण समर्पण के साथ ही सभी सांसारिक कामनाओं का अन्त हो पाता है, तब जीव को भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

जो व्यक्ति क्रमशः प्रथम तीन पुरूषार्थों का निरन्तर आचरण करता है उसे चोथे पुरूषार्थ की प्राप्ति सहज रूप से प्राप्त हो जाती है।


॥ हरि ॐ तत् सत् ॥