॥ संसार एक कारागार है ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ 
(गीता ४/१५)
हे अर्जुन! पूर्व समय में बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों ने मेरे दिव्य-ज्ञान को समझकर कर्तव्य-कर्म के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति की है, इसलिए तू भी उन्ही का अनुसरण करके अपने कर्तव्य का पालन कर।

हम सभी भगवान के अपराधी हैं हम सभी सजा भोगने के लिये संसार में आये हैं, सजा से मुक्त होना ही हमारे जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।

जिस प्रकार कोई व्यक्ति राष्ट्र के नियमों का उलंघन करके अपराध करता है तो उसे सजा भोगने के लिये कारागार में डाल दिया जाता है, कारागार में व्यक्ति को अपराध के अनुसार निम्न प्रकार से उच्च प्रकार की कोठरी रहने को दी जाती है।

यदि कोई व्यक्ति कारागार में ही जन्म लेता है और कारागार में ही अपना जीवन व्यतीत करता है, जिसने कारागार से बाहर का जीवन कभी देखा ही नहीं है तो वह व्यक्ति कारागार के जीवन को ही अपना वास्तविक जीवन समझता रहता है।

जब तक व्यक्ति को कारागार का जीवन ही अच्छा लगता है तब तक व्यक्ति कारागार से छूटने का प्रयत्न कभी नहीं करता है, और जब कभी किसी अधिकारी की कृपा से उस व्यक्ति को कारागार से बाहर के जीवन दिखलाया जाता है तभी वह व्यक्ति कारागार से छूटने पर विचार करता है। 

तब वह व्यक्ति कारागार के नियमों को जानकर उन नियमों का पालन करने लगता है तो उस व्यक्ति को निम्न कोठरी से उच्च कोठरी दे दी जाती है, इस प्रकार क्रमशः कारागार के नियमों का पालन करते हुए एक दिन उस व्यक्ति को उच्च कोठरी से सर्वोच्च कोठरी प्राप्त हो जाती है। 

जब व्यक्ति उस सर्वोच्च कोठरी में रहकर सभी कैदियों के साथ प्रेम पूर्वक आचरण करता हुआ कारागार के नियमों का पालन ईमानदारी से करने लगता है तो वह व्यक्ति एक दिन कारागार से शीघ्र मुक्त हो जाता है।

उसी प्रकार हम सभी भगवान के परम-धाम (राष्ट्र) के निवासी हैं, यह संसार भगवान के परम-धाम का एक कारागार है, और इस कारागार में चौरासी लाख प्रकार की योनि (शरीर रूपी कोठरी) है, इन सभी योनियों में मनुष्य रूपी सर्वोच्च शरीर (कोठरी) है।

जब हम सभी ने भगवान के परम-धाम के नियमों का उलंघन करके अपराध किया था तो हमें सजा भोगने के लिये हमारी स्मृति को छीनकर संसार रूपी कारागार में डाल दिया गया था। 

अब हम सभी निम्न प्रकार के विभिन्न शरीरों में सजा भोग कर मनुष्य रूपी सर्वोच्च शरीर को प्राप्त कर चुकें हैं, यदि अब हम संसार रूपी प्रकृति के नियमों का पालन ईमानदारी से करेंगे तो हम सजा से शीघ्र मुक्त हो सकते हैं।  

प्रकृति के नियम वेद-शास्त्रों में विस्तृत रूप से और "श्रीमद भगवद गीता" में सार रूप से प्रस्तुत हैं, जिसे पढ़कर या अधिकारिक गुरु के द्वारा भी जाना जा सकता है, प्रकृति के नियम प्रत्येक व्यक्ति के लिये अपनी अवस्था के अनुसार भिन्न-भिन्न होते है।

जो व्यक्ति अपनी अवस्था के अनुसार नियमों को जानकर सभी प्राणीयों के साथ प्रेम पूर्वक आचरण करता हुआ इन नियमों का पालन ईमानदारी से निरन्तर करता है तो वह व्यक्ति इस संसार रूपी कारागार से शीघ्र मुक्त हो जाता है।

हम सभी ने संसारिक जीवन को ही अपना वास्तविक जीवन समझ रखा है, प्रभु कृपा से किसी व्यक्ति को गुरु के माध्यम से जब सांसारिक जीवन से बाहर के जीवन का अनुभव हो जाता है तभी वह व्यक्ति इस संसार से छूटने का प्रयत्न करने लगता हैं।

इसलिये हम सभी को अपनी अवस्था के अनुसार प्रकृति के नियमों का पालन ईमानदारी से करने का प्रयत्न करना चाहिये, जिससे हम सभी से अब ऎसे अपराध न हो जाये कि हमें फिर से निम्न शरीर (कोठरी) में डाल दिया जाये।

॥ हरि ॐ तत सत ॥