॥ विचार परिवर्तन से ही परमगति संभव ॥

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥
(गीता ८/१४)
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ।

विचारों के परिवर्तन से स्वभाव में परिवर्तन होता है, स्वभाव परिवर्तन क्रमशः एक-एक सीढ़ी चढ़कर ही हो सकता है, संसार में मंज़िल पर पहुँचने के लिये क्रमशः ही चलने का विधान होता है, जो लोग छलांग मारने का प्रयत्न करते हैं, वह कभी मंज़िल पर नहीं पहुँच पाते हैं।

विचार चार प्रकार के होते हैं, यही ईश्वर प्राप्ति की चार सीढ़ीयाँ हैं, विचारों के अनुरूप हर व्यक्ति का स्वभाव होता है, स्वभाव के अनुरूप कर्म होते हैं, कर्म ही बन्धन का कारण होते हैं और कर्म ही मुक्ति का कारण होते हैं।

१. दुर्विचार या बुरे विचारः- स्वयं के हित के चिंतन करने से दुर्विचारों की उत्पत्ति होती है, इन विचारों से पाप-कर्म होते हैं, पाप-कर्म का फल दुखः की प्राप्ति होता है।

२. सुविचार या अच्छे विचारः- दूसरों के हित के चिंतन करने से सुविचारों की उत्पत्ति होती है, इन विचारों से पुण्य-कर्म होते है, पुण्य-कर्म का फल सुख की प्राप्ति होता है।

३. निर्विचार या विचार शून्यताः- इस अवस्था में होने वाले कर्मों से बन्धन उत्पन नहीं होता है, लेकिन परमगति भी नहीं मिलती है। (यह केवल सांख्य-योगीयों के लिये है, कर्म-योगीयों के लिये नहीं है)

४. भगवदीय विचारः- भगवान के चिंतन से भक्ति-कर्म होते हैं, भक्ति-कर्म का फल मुक्ति या ईश्वर की प्राप्ति होता है।

पहले और दूसरे प्रकार के विचारों से संस्कारों की उत्पत्ति होती है, अधिकांश मनुष्य इन्ही दोनों विचारों के बीच में ही चिंतन करते हैं। जो जीवात्मा को संसार में जन्म-मृत्यु का कारण बनकर जीव को सुख और दुख भोगने पर विवश करते हैं।

तीसरे और चोथे प्रकार के विचारों से संस्कारों की उत्पत्ति नहीं होती है, जो जीवात्मा को संसार से मुक्ति का कारण बनकर परमगति प्रदान करते हैं, जिसे प्राप्त करके जीवात्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाता है।

"सांख्य-योगी" यानि सन्यासी को चार सीढ़ीयाँ चढ़नी होती है, जबकि "कर्म-योगी" को केवल तीन सीढ़ीयाँ ही चढ़नी होती हैं।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
(गीता ५/२)
सन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्य-योग) और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्म-योग), ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाला है परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ है।

प्रकृति का नियम हैं अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिये पिछली सीढ़ी को छोड़ना होता हैं, जबकि अधिकांश मनुष्य अगली सीढ़ी पर चढ़ना तो चाहते हैं लेकिन पिछली सीढ़ी को छोड़ना ही नही चाहते हैं। यही कारण है कि वह आगे नहीं बढ़ पाते हैं।

जो व्यक्ति पिछली सीढ़ी को नहीं छोड़ते हैं वह कभी आगे नहीं बढ पाते हैं, जो व्यक्ति पिछली सीढ़ीयों को छोड़ते जाते हैं वह मंज़िल पर पहुँच पाते है।

इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों का अध्यन करने का अभ्यास करना चाहिये कि मेरे मन में कौन सा चिंतन चल रहा है, यह तभी संभव है जब व्यक्ति दूसरों के विचारों को जानने का प्रयत्न बन्द करेगा।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥