॥ सम्पूर्ण गीता का सार ॥


भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं...

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
(गीता २/४७)
हे अर्जुन! तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और न ही कर्म करने में तू आसक्त हो।

कर्म करना और फल की इच्छा न करना ही "निष्काम कर्म-योग यानि भक्ति-योग" है, बिना भक्ति-योग के भगवान की प्राप्ति असंभव है।

कर्म का बीज बो देने पर फल का उत्पन्न होना निश्चित ही होता है, फल जायेगा कहाँ? फल तो बीज बोने वाले को ही मिलेगा, कोई दूसरा तो उस फल को खा ही नहीं सकता है तो हमें चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है।

जब हम अपने कर्म एवं दूसरों के हितों को देखते हैं तब हमसे पुण्य-कर्म हो रहा होता है, और जब हम दूसरों का कर्म एवं अपना हित देखते हैं तब हमसे पाप-कर्म ही हो रहा होता है। इसलिये हमें केवल स्वयं के कर्म को ही देखना चाहिये कि हमसे कौन सा कर्म हो रहा है।

बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होय।

जैसा कर्म रूपी बीज हम बोते हैं वैसा ही फल प्राप्त होता है, जब हम बबूल (पाप-कर्म) का बीज बोते हैं तो हमें काँटे (दुख) ही मिलते हैं, और जब हम आम (पुण्य-कर्म) का बीज बोते हैं तो हमें आम (सुख) मिलता है।

जो बीज बोता है फल भी केवल वही खाता है, यही आध्यात्म (सत्य) है, लेकिन भौतिक संसार में यह उल्टा दिखलाई देता है, बीज कोई बोता हुआ दिखाई देता है और फल कोई और खाता दिखाई देता है।

इसी स्थिति पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को उल्टे वृक्ष की उपमा दी है।

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥
(गीता १५/१)
हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥
(गीता १५/२)
इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियाँ रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है, इस वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं।

जब हम फल की इच्छा से कर्म करते हैं तब सकाम-फल यानि दुख-सुख रूपी विष के समान विषय-भोगों की प्राप्ति होती है, इस फल को भोगने के लिये हमें बार-बार जन्म लेना पड़ता है।

जब हम बिना फल की इच्छा से कर्म करते हैं तब निष्काम-फल यानि अमृत-फल की उत्पत्ति होती है जिसे प्राप्त कर हम परम-आनन्द अवस्था में स्थित होकर जन्म-मृत्यु चक्र से मुक्त हो परमगति को प्राप्त हो सकते हैं।

॥ हरि ॐ तत सत ॥