॥ ज्ञान और अहंकार ॥

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥
(गीता ४/१९)
जिस मनुष्य के निश्वय किये हुए सभी कार्य बिना फ़ल की इच्छा के पूरी लगन से सम्पन्न होते हैं तथा जिसके सभी कर्म ज्ञान-रूपी अग्नि में भस्म हो गए हैं, बुद्धिमान लोग उस महापुरुष को पूर्ण-ज्ञानी कहते हैं।

एक नव युवा साधक एक ब्रह्मनिष्ठ संत जी के सत्संग के लिए पहुँचे, वह बातचीत के दौरान बार-बार कहते थे, मैं बहुत धनी परिवार से हूँ, मैंने संस्कृत में उच्च शिक्षा प्राप्त की है और वेद, गीता, महाभारत, पुराणों आदि का गहन अध्ययन किया है।

संत जी ने कहा, यदि वास्तव में जिज्ञासा लेकर आए हो और धर्म-अध्यात्म का मर्म समझने की तृष्णा है, तो सबसे पहले इस अहंकार का त्याग करो कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो।

अहंकार के रहते तुम किसी से भी कुछ नहीं सिख सकते हो, उन्होंने कुछ क्षण रुककर कहा, उपनिषदों में व्यास देव जी घोषित करते हैं जो यह कहता है कि मुझे ज्ञान है और बहुत कुछ जानता हूँ।

उसे यह समझ लेना चाहिए कि वह घोर अज्ञान के अंधकार में भटक रहा है, न जानने का बोध ज्ञान की गुरुता का सर्वोपरि सम्मान है, वही परमात्मा के प्रति समर्पण भी है।

उन्होंने आगे कहा, ज्ञान का अहंकार किसी से कुछ सीखने ही नहीं देता है, जो मानव विनम्रता पूर्वक खुद को अज्ञानी मानकर तत्वदर्शी की शरण लेता है, वही आत्मा-परमात्मा व ज्ञान-अज्ञान के भेद को जान सकता है।

जिनकी बुद्धि स्थित है और जिसका मन कहीं अटका नहीं है, ऐसा विनयी जिज्ञासु ही ज्ञान के सागर में गोते लगाकर मोती ढूंढ सकता है, सबसे पहले किसी भी प्रकार के अहंकार से शून्य हो जाना जरूरी है।

अज्ञानता में तुलसीदास जी को अपनी स्त्री में ही सुख व प्रेम दिखाई देता था, पर जब ज्ञान चक्षु खुल गए, तो उनके मुख से निकला,

सियाराम मय सब जग जानी।
करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी॥


इस दृष्टान्त के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही पहचानना है, कहीं वह नया साधक "मैं" तो नहीं हैं?  

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ सम्पूर्ण गीता का सार ॥


भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं...

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
(गीता २/४७)
हे अर्जुन! तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और न ही कर्म करने में तू आसक्त हो।

कर्म करना और फल की इच्छा न करना ही "निष्काम कर्म-योग यानि भक्ति-योग" है, बिना भक्ति-योग के भगवान की प्राप्ति असंभव है।

कर्म का बीज बो देने पर फल का उत्पन्न होना निश्चित ही होता है, फल जायेगा कहाँ? फल तो बीज बोने वाले को ही मिलेगा, कोई दूसरा तो उस फल को खा ही नहीं सकता है तो हमें चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है।

जब हम अपने कर्म एवं दूसरों के हितों को देखते हैं तब हमसे पुण्य-कर्म हो रहा होता है, और जब हम दूसरों का कर्म एवं अपना हित देखते हैं तब हमसे पाप-कर्म ही हो रहा होता है। इसलिये हमें केवल स्वयं के कर्म को ही देखना चाहिये कि हमसे कौन सा कर्म हो रहा है।

बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होय।

जैसा कर्म रूपी बीज हम बोते हैं वैसा ही फल प्राप्त होता है, जब हम बबूल (पाप-कर्म) का बीज बोते हैं तो हमें काँटे (दुख) ही मिलते हैं, और जब हम आम (पुण्य-कर्म) का बीज बोते हैं तो हमें आम (सुख) मिलता है।

जो बीज बोता है फल भी केवल वही खाता है, यही आध्यात्म (सत्य) है, लेकिन भौतिक संसार में यह उल्टा दिखलाई देता है, बीज कोई बोता हुआ दिखाई देता है और फल कोई और खाता दिखाई देता है।

इसी स्थिति पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को उल्टे वृक्ष की उपमा दी है।

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥
(गीता १५/१)
हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥
(गीता १५/२)
इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियाँ रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है, इस वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं।

जब हम फल की इच्छा से कर्म करते हैं तब सकाम-फल यानि दुख-सुख रूपी विष के समान विषय-भोगों की प्राप्ति होती है, इस फल को भोगने के लिये हमें बार-बार जन्म लेना पड़ता है।

जब हम बिना फल की इच्छा से कर्म करते हैं तब निष्काम-फल यानि अमृत-फल की उत्पत्ति होती है जिसे प्राप्त कर हम परम-आनन्द अवस्था में स्थित होकर जन्म-मृत्यु चक्र से मुक्त हो परमगति को प्राप्त हो सकते हैं।

॥ हरि ॐ तत सत ॥