॥ माया एक मात्र धोखा है ॥

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमिश्रिताः॥ 
(गीताः ७/१५)
मनुष्यों में अधर्मी और दुष्ट स्वभाव वाले मूर्ख लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते है, ऐसे नास्तिक-स्वभाव धारण करने वालों का ज्ञान मेरी माया द्वारा हर लिया जाता है।

भगवान की माया बहुत प्रबल है, मनुष्य को जल्दी से पता चलने नहीं देती कि वह क्या चाहता है, हम जिन चीजों की इच्छा कर रहे हैं वे चीजें जिनके पास हैं क्या वह तृप्त हो गये हैं? हम जो कुछ चाहते हैं क्या वह जीवन का सही लक्ष्य है? हम जो कुछ बनाये जा रहे हैं, सजाये जा रहे, क्या वह साथ जायेगा? माया में हमारी बुद्धि उलझी हुई रह जाती है।

अज्ञान से हमारा ज्ञान ढक गया है, हम मोहित हो गये हैं, जीव ब्रह्म-पद से जन्तुओं की श्रेणी में आ गया हैं, यदि जीव माया के तीन गुणों से बचने की विधि जान ले, मोहनिशा से जाग जाये भगवान की शरण ग्रहण प्राप्त कर ले, ऎसी समझ पा ले तो पता चलेगा कि अनेक जन्मों से हमने अपने ही साथ धोखा किया है।

हम अपने साथ कभी बुरा करना नहीं चाहते लेकिन हम वही स्वभाव को अपनाते रहे हैं जिससे हमारा अहित ही होता आया है, हम वे ही पदार्थ चाहते हैं जिन पदार्थों के कारण हमारा ज्ञान ढ़का रहता है, हम वही सुविधाएँ चाहते हैं जिससे हमारा मन दुर्बल बना रहता है, और जिससे मनोबल नष्ट हो जाता है।

हम केवल वही पद चाहते हैं जिससे हमारा मिथ्या अहंकार बढ़ता रहता है, हम वही सुख चाहते हैं जिससे हमारी वासनाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती हैं, इस कारण हमारी वासनाएँ कभी निवृत्त नहीं हो पातीं, अगर वासना निवृत्त होने वाले सुख में गोता खायें तो बेड़ा पार हो जायेगा, वह केवल भगवान का नाम ही है।

वासनाओं को भड़काने वाला सुख कामनाओं की पूर्ति करने वाला सुख है, विषयों का सुख है, कामनाओं का सुख लेते हुए हम अनेको जन्मों से भटकते आये हैं, अनेकों जन्मों से जीते आये हैं, हमारा यह मनुष्य जन्म है, शायद इस बात को समझ पाएँ, इस वचन को हम समझ जाएँ कि यह सब माया है।

माया का अर्थ होता है धोखा, माया का अर्थ होता है जो नहीं है फिर भी दिखलाई देता है, माया का अर्थ होता है जिसका वास्तविक अस्तित्व नहीं है, वास्तविक सार नहीं है, वास्तविक सत्ता नहीं है फिर भी सब कुछ प्रतीत होता है, जो वास्तव में है ही नहीं उससे लड़ना तो मूर्खता ही होगी।

मिट्टी का कोई पुतला जमीन से लड़ने जाय, कोई घट चट्टान से लड़ने जाय तो क्या होगा? फूट ही जाएगा, ऐसे ही हमारा यह स्थूल शरीर है, हमारा मन है, हमारी बुद्धि है, हमारा कारण शरीर है, यह सब माया के द्वारा निर्मित हुए हैं, विशाल ब्रह्माण्डों में विखरी हुई इसी माया की सत्ता से निर्मित हुए इन साधनों से ही माया को जीतने की इच्छा करेंगे तो जीतना असंभव है, जिसप्रकार बुलबुला सागर को वश करना चाहे तो सागर का बुलबुले के वश होना असंभव है।

बुलबुला सागर को वश में न करने का प्रयत्न छोड़कर, बुलबुला अपनी वास्तविक स्थिति को जान ले तो पता चलेगा कि मैं पानी ही हूँ, सागर भी तो पानी ही पानी है, जिसप्रकार बुलबुला पानी की शरण ग्रहण कर लेता है तो बुलबुला भी सागर हो जाता है, उसीप्रकार जीव अपना वास्तविक रूप जानकर भगवान की शरण ग्रहण कर लेता है तो उस जीव के लिए माया से पार पाना आसान हो जाता है।

कोई भी मनुष्य माया में रहते हुए, मन में रहते हुए, बुद्धि में रहते हुए, शरीर में रहते हुए, अहंकार में रहते हुए, कोई भी मनुष्य अपनी अक्ल से, अपने बाहुबल से, अपने धन से, अपने वैभव से, अपने मित्रों के सहारे, अपनी सत्ता की कुर्सी के द्वारा अगर माया को पार करना चाहता है तो वह उसीप्रकार नादान है, मानो वह सागर पर गद्दे बिछाकर सागर को पार करना चाहता है।

यह माया तीन गुणों से युक्त होती है उसके किसी न किसी गुण से हम अपना अहंकार जोड़ देते हैं, जैसे नींद आती है शरीर की थकान के कारण, यानि तम गुण के कारण और हम कहते हैं कि मुझे नींद आ रही है, भूख लगती है शरीर को लेकिन हमारा अहंकार कहता है कि मुझे भूख लग रही है, खुशी होती है मन को लेकिन हम सोचते हैं मुझे खुशी प्राप्त हो रही है, शोक होता है मन को और हम सोचते हैं कि मैं दुःखी हूँ।

माया के गुणों के साथ हम एक रूप स्वत: ही हो जाते हैं क्योंकि हमने भगवान की शरण ग्रहण नहीं की हैं, इसलिये हम माया के गुणों की शरण हो स्वत: ही हो जाते हैं, हम भगवान के शरणागत नहीं हुए हैं इसलिए मान-अपमान की शरण स्वत: ही हो जाते हैं, हमने भगवान की शरण नहीं ली हैं इसलिए अपनी कल्पना शक्ति के शरण स्वत: ही हो जाते हैं और खुद ही खो जाते हैं गुणों के अधीन होकर, अपनी अक्ल है नहीं और दूसरों का मानना भी नहीं है, इसी का नाम माया है।

माया गुणमयी है इस माया से किसी का भी मनुष्य का स्वयं बच पाना असंभव है, धन-सम्पदा का अहंकार, सत्ता या पद का अहंकार, धर्मात्मा होने का अहंकार, पुण्यात्मा होने का अहंकार, भगवान का सेवक होने का अहंकार, योग साधक होने का अहंकार, भक्त होने का अहंकार, कुछ न कुछ होने का अहंकार हमारे चित्त में पैदा कर ही देती है।

माया तब तक हमें अपनी लपेटे में लेती रहती है, तब तक हमें इस भवकूप गिराती रहती है, जब तक हम परमात्मा के पूर्ण शरणागत नहीं जाते हैं, जब तक हम में सभी प्रकार की भूख मिटकर परम-तत्व भगवान की ही भूख नहीं रह जाती है तब तक माया हमसे मजदूरी कराती ही रहती है।

हम धन कमायेंगे तभी सुखी हो पायेंगे, हमें पद-प्रतिष्ठा मिलेगी तो सुखी हों पायेंगे, शत्रु मर जायेगा तभी सुखी हो पायेंगे, मित्र आ जायेगा तो सुखी हो जायेंगे, ये सब मन की कल्पना मात्र हैं और मन तो माया से ही बना हुआ है।

शरीर तो बना है माया की मिट्टी से, अभिमान होता है कि मैं यह हूँ, मन बना है माया के सूक्ष्म तत्त्वों से, हमें अभिमान होता है कि मैंने अच्छा काम किया, मैंने बुरा काम किया, मैंने पाप किया, मैंने पुण्य किया, अरे! तू करने वाला है कौन? उस अनन्त की हवाएँ लेकर तू अपने फेफडों को चला रहा है, उस भगवान के तेज अंश की सत्ता से सूर्य की किरणें तुम्हे जीवित रख रही हैं, तेरा अपना क्या है?

वास्तव में तो भगवान की ऐसी अदभुत करुणा है, कृपा है कि देने वाला हमें दिखाई नहीं देता है और जो कुछ मिलता है उसे हम अपना समझ लेते हैं, शरीर भगवान ने दिया है, सभी वैज्ञानिक मिलकर भी एक राई का एक दाना बना नहीं सकते है, मिट्टी का एक नया कण भी नही बना सकते है, जो कुछ बनाएँगे वह अनन्त भगवान की बनायी हुई चीजों को ही जोड़कर ही बना पायेंगे और फिर उसमें मैं और मेरा करके मालिक बन जाएँगे फिर कहेंगे यह मेरा है।

यदि घर तुम्हारा है तो क्या घर में लगी की ईंटें तुमने बनायी हैं?
नहीं, कुम्हार ने बनायी है।

कुम्हार ने कैसे बनायी है?
मिट्टी, पानी और आग से बनाई है।

मिट्टी कुम्हार ने बनायी?
नहीं।

आग कुम्हार ने बनायी?
नहीं।

पानी कुम्हार ने बनाया?
नहीं।

पानी कुम्हार का नहीं, आग कुम्हार की नहीं, मिट्टी कुम्हार की नहीं तो ईंटें कुम्हार की कैसे हो सकती हैं? ईंटें कुम्हार की नहीं हैं तो यह ईंटें तुम्हारी भी नहीं हैं, जब ईंटें तुम्हारी नहीं हैं तो घर तुम्हारा कैसे हो सकता है।

लेकिन माया में उलझकर बोलते हैं कि यह मेरा घर है, व्यवहार के लिए मान लो, कह लो यह मेरा घर है यह तेरा घर है, लेकिन अन्दर से तो यही विचार करो कि यह किसका घर? क्या मैं, क्या मेरा?

यदि निरन्तर इतना ही विचार कर लिया तो सभी विकार स्वयं ही जलकर भस्म हो जायेंगे और यही जीवन आपका अन्तिम जीवन बन जायेगा, यही मानव जीवन का एक मात्र लक्ष्य है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥