॥ भक्ति वृद्धि के नियम ॥

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
(गीताः १२/२)
जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण-साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्य स्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं।

१. जिस विधि से भक्ति वृद्धि को प्राप्त होती है, उस विधि का निरूपण किया जाता है, सांसारिक आसक्ति के त्याग से, कृष्ण कथा सुनने से और कृष्ण नाम के कीर्तन से ही भक्ति रूपी बीज दृढ़ स्थित होता है।

२. घर में रहकर ही अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करते हुए ही भक्ति का बीज दृढ़ होता है, सांसारिक इच्छाओं को सीमित कर मन को स्थिर करके मूर्ति पूजा के द्वारा, कथा श्रवण आदि विधियों से भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते रहना चाहिये।

३. सांसारिक इच्छाओं के होते हुए भी चित्त को श्रीहरि के श्रवण आदि में प्रयत्न करके निरन्तर लगाये रखना चाहिए, और तब तक लगाये रखना चाहिये जब तक भगवान से प्रेम तथा आसक्ति और राग उत्पन्न न हो जाये।

४. शास्त्रों के अनुसार भक्ति के बीज को तभी दृढ़ स्थित कहा जा सकता है जब-तक अन्य किसी के प्रति प्रेम और आसक्ति नहीं रह जाती है और घर के प्रति स्वत: ही आसक्ति का अन्त नहीं हो जाता है।

५. जब घर एक बाधक और शरीर, आत्मा से अलग लगने लगता है, केवल श्रीकृष्ण की भक्ति ही एकमात्र कर्म हो जाता है, तभी प्राणी कृतार्थ हो पाता है।

६. कर्तव्य पूर्ण हो जाने पर या भक्ति के प्राप्त होने पर भी सदैव घर में निवास करने से भक्ति का विनाश हो जाता है, इसलिए घर का त्याग करके मन को भगवान की भक्ति में स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये।

७. इस प्रकार निरन्तर प्रयत्न करने से सम्पूर्ण रूप से शुद्ध भक्ति में स्थिरता प्राप्त हो जाती है, घर त्याग करने में दुष्ट लोगों की संगति और भोजन प्रमुख बाधाएँ होती हैं।

८. इसलिए भगवान के मंदिर के समीप तथा भक्तों के साथ निवास करना चाहिये, भक्तों के पास रहें या भक्तों से दूर रहें लेकिन इस प्रकार रहना चाहिये जिससे मन दूषित न हो सके।

९. भगवान की सेवा करने से या भगवान की कथा श्रवण करने से जिस प्रकार से भी भगवान के प्रति आसक्ति दृड़ हो सके, इस प्रकार जीवन की अन्तिम श्वांस तक सेवा या श्रवण करते रहना चाहिए।

१०. किसी बाधा की संभावना से या हठपूर्वक एकान्त में रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिये बल्कि भय मुक्त होकर प्रसन्नता पूर्वक एकान्त में रहना चाहिये, क्योंकि भगवान श्री कृष्ण निश्चित रूप से सभी प्रकार से रक्षा करते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिये।

११. इस प्रकार भगवत प्राप्ति की इच्छा वालों के लिये शास्त्रों के गूढ़ तत्त्व का निरूपण किया गया है, जो भी इस विधि का दृड़ता-पूर्वक पालन करता है, वह भगवान में दृढ़ स्थिति को प्राप्त ही जाता है।

१२. इस प्रकार भगवान प्राप्ति की इच्छा वालों के लिये शास्त्रों के रहस्यमय तत्त्व का निरूपण किया गया है, जो भी इस विधि का स्थिरता के साथ पालन करता है, वह भगवान में स्थिर स्थिति को प्राप्त हो ही जाता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ भक्ति का वास्तविक स्वरूप ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
(गीता १२/६)

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥
(गीता १२/७)
जो मनुष्य अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करके मेरी शरण होकर अनन्य भाव से भक्ति-योग में स्थित होकर निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मेरी आराधना करते हैं। मुझमें स्थिर मन वाले उन मनुष्यों का मैं जन्म-मृत्यु रूपी संसार-सागर से अति-शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ।

भगवान, परमात्मा और ब्रह्म एक होते हुए भी अलग ही हैं। किसी भी मनुष्य की वास्तविक भगवद भक्ति तो ब्रह्म-ज्ञान प्रकट होने के बाद ही आरम्भ होती है। मनुष्य में ब्रह्म-ज्ञान का प्रकट होना ही ब्रह्म साक्षात्कार कहलाता है। जिस मनुष्य में ब्रह्म-ज्ञान प्रकट हो जाता है वही ब्राह्मण अवस्था को प्राप्त होता है और वही वास्तविक ब्राह्मण होता है, उसके द्वारा बोले जाने वाला प्रत्येक शब्द ब्रह्म-वाक्य होता है।

ब्रह्म-ज्ञान सभी प्राणी मात्र में स्थित है, क्योंकि जहाँ ब्रह्म है वहीं ब्रह्मज्ञान है, आत्मा ही ब्रह्म है जो प्रत्येक प्राणी मात्र में स्थित है।

जगदगुरु आदि शंकराचार्य जी कहते हैं....

अहं ब्रह्मास्मि!
हम सभी परब्रह्म के अंश ब्रह्म स्वरूप ही हैं।

इसी पर गुरु नानक देव जी कहते हैं....

हर घट मेरा सांइया, खाली घट न कोय।
बलिहारी जा घट की, ता में प्रकट होय॥
हर प्राणी के शरीर में भगवान ब्रह्म स्वरूप में रहते है, कोई भी प्राणी का शरीर ऎसा नहीं है जिसमें भगवान नहीं हैं। सार्थकता तो उस उस शरीर रूपी मनुष्य की है, जिसमें वह प्रकट होता है।

संसार में प्रत्येक कर्म को करने के लिये क्रमश: ही चलने का विधान है, जिस प्रकार आगे बढ़ने के लिये पिछले कदम को छोड़ना पड़ता है, जब तक पिछले कदम को नहीं छोड़ते है तो अगला कदम नहीं उठ सकता है तब तक कोई आगे नहीं बढ़ सकता हैं। उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिये....

(१) जब तक मनुष्य निष्काम भाव से कर्म नहीं करता है तब तक मनुष्य का अज्ञान दूर नहीं हो सकता है।

(२) जब तक मनुष्य का अज्ञान दूर नहीं होता है तब तक मनुष्य में ज्ञान प्रकट नहीं हो सकता है।

(३) जब तक मनुष्य में ज्ञान प्रकट नहीं हो जाता है तब तक कोई भी मनुष्य पूर्ण शरणागत नहीं हो सकता है।

(४) जब तक मनुष्य पूर्ण शरणागत नहीं होता है तब तक मनुष्य को भगवान की शरणागति प्राप्त नहीं हो सकती है।

(५) जब तक मनुष्य को भगवान की शरणागति प्राप्त नहीं होती है तब तक मनुष्य वास्तविक भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है।

(६) जब तक मनुष्य को वास्तविक भक्ति प्राप्त नहीं होती है तब तक मनुष्य को भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

(७) जब तक मनुष्य को भगवान की प्राप्ति नहीं होती है तब तक मनुष्य की जन्म-मृत्यु रूपी यात्रा पूर्ण नहीं हो सकती है।

(८) जब तक मनुष्य की जन्म-मृत्यु रूपी यात्रा पूर्ण नहीं होती है तब तक मनुष्य का जन्म-मृत्यु का क्रम चलता रहता है।

जगदगुरु आदि शंकराचार्य जी कहते हैं....

पुनरपि जननम पुनरपि मरणम, 
पुनरपि जननी जठरे शयनम।
बार-बार जन्म लेना, बार-बार मरना, फिर से जन्म लेना और फिर से मर जाना। जन्म से पहले हम कहाँ थे और मरने के बाद कहाँ होंगे यह कोई नहीं जानता है।

भक्ति के द्वारा ही भक्ति प्राप्त होती है, एक भक्ति वह होती है जिसे किया जाता है और दूसरी भक्ति वह होती है जो भगवान की कृपा से प्राप्त होती है।

जो भक्ति की जाती है वह तो भक्ति रूपी कर्म होता है, और जो भक्ति भगवान की कृपा से प्राप्त होती है वह भक्ति पथ होता है। सभी अन्य कर्मों की अपेक्षा भक्ति-कर्म श्रेष्ठ है।

जो कुछ भी किया जाता वह कर्म होता है, जो कुछ भी प्राप्त होता है वह भगवान की कृपा होती है इस बात से यह सिद्ध होता है कि एक साधारण मनुष्य जिसे भक्ति के नाम से जानता है वह वास्तव में भक्ति कर्म ही है।

गीता के अनुसार......

ईश्वर प्राप्ति के दो ही मार्ग है, "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग"।

इन दोनों मार्गों में से किसी एक मार्ग का धर्मानुसार अनुसरण करके ही भक्ति-मार्ग में प्रवेश मिलता है, भक्ति मार्ग में प्रवेश पाना ही मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।

इन दोनों ही मार्गों में कर्म का आचरण तो करना ही होता हैं, प्रत्येक व्यक्ति इन दोनों में से ही किसी एक का अनुसरण कर रहा है। परन्तु आधिकतर मनुष्य सकाम भाव से कर्म करते है। जब तक निष्काम भाव उत्पन्न नहीं होगा तब तक "कर्म-योग" का आचरण नहीं हो सकता है और तब तक किसी भी मनुष्य का योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

योग किसे कहते हैं?

"योग" का अर्थ होता है "जोड़ना या मिलाना" जो भी कर्म हमारा भगवान से जोड़ने में या भगवान से मिलन कराने मे सहायक हो उसी को योग कहते हैं।

पूजा किसे कहते है?

पूजा शब्द दो शब्दों को जोड़ कर बना है....पू=पूर्ण और जा=मिलाना..... जो भी कर्म हमें पूर्ण से मिलाने में सहायक हों उसे पूजा कहते हैं। पूर्ण केवल भगवान ही हैं बाकी सभी तो अपूर्ण हैं।

जिस प्रकार मूर्ति-पूजा, भगवान का गीत गाना (भजन), तीर्थ यात्रा करना, पाठ करना, माला द्वारा मंत्र जप करना आदि को जिसे भक्ति-योग कहते हैं, यह भी कर्म-योग के अंतर्गत ही आती है।

जब तक भक्ति-कर्म भी निष्काम भाव से नहीं होगा तब तक भक्ति-योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ ब्रह्म, परमात्मा और भगवान ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥
(गीता ७/३)
हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक ही मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है।

अपनी गलती का एहसास करके दुबारा न करने का संकल्प करना ही प्रायश्चित होता है, प्रायश्चित करने वाले को तो भगवान भी माफ़ कर देते हैं। आपका विश्वास ही विश्व की श्वांस परमात्मा है। जब आपका जिस दिन किसी भी एक व्यक्ति पर पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर हो जाता है तभी से उस शरीर से आपको भगवान का साक्षात आदेश मिलना प्रारम्भ हो जाता है।

जिनके गुरु हैं उन सभी को अपने गुरु में पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये, किसी भी गुरु रूपी शरीर को भगवान नहीं समझ लेना चाहिये, उस गुरु रूपी शरीर के मुख से निकलने वाले शब्द तो साक्षात भगवान का ब्रह्म-स्वरूप रूपी ब्रह्म-वाणी होती है।

गुरु के शरीर की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये कि वह क्या करतें हैं गुरु के तो केवल शब्दों पर ही ध्यान देना चाहिये। गुरु से कभी भी बहस नहीं करनी चाहिये, गुरु से प्रश्न भी कम से कम शब्दों में और निर्मल भाव से करना चाहिये। प्रश्न को कभी भी समझाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।

समस्त प्रयत्न करने के बाद भी गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर नहीं हो पाता है तो ऎसे गुरु का त्याग कर देना ही उचित होता है। ऎसे गुरु के त्याग में ही शिष्य का हित छिपा होता है। गुरु वह होता जिसके सानिध्य से मन को शान्ती और आनन्द का अनुभव हो, न कि किसी प्रकार का भार महसूस हो।

आनन्द ही भगवान का शब्द-ब्रह्म स्वरूप होता है, इसलिये गुरु के द्वारा ही ब्रह्म का साक्षात्कार शब्द-ब्रह्म रूप में होता है जो पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास के साथ उस शब्द-रूपी ब्रह्म को धारण कर लेता है उसी में से वह ब्रह्म ज्ञान रूप में प्रकट होने लगता है। मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव को भगवान का साक्षात्कार क्रमश: तीन रूप में होता है!.....

१. ब्रह्म-स्वरूप (शब्द-ज्ञान रूप में)
२. परमात्म-स्वरूप (निर्गुण निराकार रूप में)
३. भगवद्‍-स्वरूप (सगुण साकार रूप में)

जब तक मनुष्य को स्वयं में ब्रह्म का अनुभव नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक मनुष्य को कर्म तो करना ही पड़ता है, मनुष्य के द्वारा जो भी किया जाता है वह सभी कर्म ही होते हैं, किसी भी कर्म को करते-करते जब मनुष्य सकाम भाव को त्याग कर निष्काम भाव से कर्म करने लगता है तभी से उसके मन की शुद्धि होने लगती है।

जैसे-जैसे मनुष्य के मन की शुद्धि होती जाती है वैसे-वैसे ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव होने लगता है, तभी शब्दों का वास्तविक अर्थ समझ में आने लगता है, यहीं से ज्ञान स्वयं प्रकट होने लगता है इसी को ब्रह्म-साक्षात्कार कहतें है।

ब्रह्म साक्षात्कार के बाद ही मनुष्य पूर्ण रूप से प्रभु के शरणागत होने की विधि को जानने लगता है, जैसे-जैसे मनुष्य अपने जीवन का प्रत्येक क्षण प्रभु को समर्पित करता चला जाता है वैसे-वैसे ही वह अपनी आत्मा की ओर बढने लगता है तब उसे आत्मा में ही परमात्मा का अनुभव लगता है।

यहीं से जीव स्वयं को अकर्ता और आत्मा को कर्ता समझने लगता है और तभी से वह जीव कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है, तब जीव का वह मनुष्य रूपी शरीर केवल एक यन्त्र मात्र रह जाता तब उस शरीर के द्वारा जो भी कर्म होते हुए दिखाई देंते हैं वह किसी भी प्रकार के फल उत्पन्न नहीं कर पाते हैं।

जब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव पूर्व जन्मों के फल (प्रारब्ध) को सम्पूर्ण रूप से भोग लेता है तब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव मनुष्य रूपी शरीर का त्याग होने के बाद भगवान का साकार रूप में दर्शन करके भगवान के धाम में प्रवेश पा जाता है जहाँ पहुँच कर जीव नित्य आनन्द में लीन होकर "सच्चिदानन्द" स्वरूप में स्थित हो जाता है, यहीं मनुष्य जीवन का एक मात्र परम-लक्ष्य होता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ मन और बुद्धि के भेद ॥


भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
(गीता ६/३५)
हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं के त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास के द्वारा वश में किया जा सकता है।

भगवान ने हमें समस्त भौतिक कर्मों को करने के लिये तीन वस्तु दी हैं, (१) बुद्धि, (२) मन और (३) इन्द्रियों का समूह यह शरीर। बुद्धि के द्वारा हमें जानना होता है, मन के द्वारा हमें मानना होता है और इन्द्रियों के द्वारा हमें करना होता है।

इसके लिये पहले इच्छा और कामना का भेद समझना होगा, कामनाओं का जन्म बुद्धि के द्वारा होता है, और इच्छाओं का जन्म मन में होता है। बुद्धि का वास स्थान मष्तिष्क होता है और मन का वास स्थान हृदय होता है, बुद्धि विषयों की ओर आकर्षित होकर कामनाओं को उत्पन्न करती हैं और इच्छायें प्रारब्ध के कारण मन में उत्पन्न होती हैं। कामना जीवन में कभी पूर्ण नहीं होती है, इच्छा हमेशा पूर्ण होती हैं।

बुद्धि के अन्दर विवेक होता है, यह विवेक केवल मनुष्यों में ही होता है, अन्य किसी योनि में नहीं होता है। यह विवेक हंस के समान होता है। इस विवेक रूपी हंस के द्वारा "जल मिश्रित दूध" के समान "शरीर मिश्रित आत्मा" में से जल रूपी शरीर और दूध रूपी आत्मा का अलग-अलग अनुभव किया जाता है, जो जीव आत्मा और शरीर का अलग-अलग अनुभव कर लेता है तो वह जीव केवल दूध रूपी आत्मा का ही रस पान करके तृप्त हो जाता है और शरीर रूपी जल की आसक्ति का त्याग करके वह निरन्तर आत्मा में ही स्थित होकर परम आनन्द का अनुभव करता है।

मनुष्य शरीर रथ के समान है, इस रथ में घोडे रूपी इन्द्रियाँ हैं, लगाम रूपी मन है, सारथी रूपी बुद्धि है और रथ के दो स्वामी जीव कर्ता-भाव में अहंकार से ग्रसित रहता है और आत्मा द्रृष्टा-भाव में मुक्त रहता है। जब तक जीव का विवेक सुप्त अवस्था में रहता है तब तक जीव स्वयं को कर्ता समझकर शरीर रूपी रथ के इन्द्रियों रूपी घोड़ो को मन रूपी लगाम से बुद्धि रूपी सारथी के द्वारा चलाता रहता है, तो जीव कर्म के बंधन में फंसकर कर्म के अनुसार सुख-दुख भोगता रहता है।

बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

जब जीव का विवेक भगवान की कृपा से सत्संग के द्वारा जाग्रत होता है तब जीव मन रुपी लगाम को बुद्धि रुपी सारथी सहित आत्मा को सोंप देता है तब जीव अकर्ता भाव में द्रृष्टा-भाव में स्थित होकर मुक्त हो जाता है।

जब तक जीव के शरीर रूपी रथ का बुद्धि रूपी सारथी मन रुपी लगाम को खींचकर नही रखता है तो इन्द्रियाँ रुपी घोंडे अनियन्त्रित रूप से विषयों की ओर आकर्षित होकर शरीर रुपी इस रथ को दौड़ाते ही रहते हैं, और अधिक दौड़ने के कारण शरीर रुपी रथ शीघ्र थककर चलने की स्थिति में नही रह जाता है फिर एक दिन काल के रूप में एक हवा का झोंका आता है और जीव को पुराने रथ से उड़ाकर नये रथ पर ले जाता है।

आत्मा ही जीव का परम मित्र है, वह जीव को कभी भी अकेला नहीं छोड़ता है, वही जीव का वास्तविक हितैशी है, इसलिये वह भी जीव के साथ नये रथ पर चला जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक जीव स्वभाव द्वारा बुद्धि सहित मन को आत्मा को नहीं सोंप देता है।

मन चंचल कभी नहीं होता है, बुद्धि चंचल होती है, बुद्धि की चंचलता के कारण ही मन चंचल प्रतीत होता है। क्योंकि मन बुद्धि के वश में होता है बुद्धि मन को अपने अनुसार चलाती है तो बुद्धि की आज्ञा मान कर मन उधर की ओर चल देता है, हम समझतें हैं मन चंचल है।

जिस प्रकार कोई कोई पति अपनी पत्नी के पूर्ण आधीन होता है तो वह जोरु का गुलाम कहलाता हैं, और जब पत्नी अपने पति के पूर्ण आधीन रहती है तो वह पतिव्रता स्त्री कहलाती है, ठीक उसी प्रकार बुद्धि पत्नी (स्त्रीलिंग) स्वरूपा है और मन (पुल्लिंग) पति स्वरूप है, जब मन, बुद्धि के आधीन होता है तो वह जोरु के गुलाम की तरह नाचता रहता है, और जब बुद्धि स्वयं मन के आधीन हो जाती है तो वह स्थिर हो जाती है तो मन भी स्थिर हो जाता है।

मनुष्य को अपने मन रूपी दूध का बुद्धि की मथानी बनाकर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि असुरों और धैर्य, क्षमा, सरलता, संकल्प, सत्य आदि देवताओं द्वारा अहंकार की डोरी से मथकर भाव रूपी मक्खन का भोग प्रभु को लगाना चाहिये। यही माखन मेरे कृष्णा को अत्यन्त पसन्द है। जो छाछ बचेगी वह मेरा कान्हा आपसे स्वयं माँग कर खुद ही पी लेगा, मन रूपी दूध का कोई भी अंश नहीं शेष नहीं रहता है। यही मनुष्य जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ नन्द उत्सव और माखन लीला का तात्पर्य ॥


भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(गीता ४/९)
अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

सभी जीव संसार रूपी कारागार में ही जन्म लेते हैं, जन्म लेकर गोकुल रूपी शरीर में प्रवेश करते हैं, और जिस जीव का नन्द रूपी मन होता है तो उसी के आंगन में महामाया रूपी कन्या के स्थान पर आनन्द स्वरूप श्री स्वयं कृष्ण प्रकट हो जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य को इस आनन्द की यशौदा रूपी यश और वात्सल्य रूपी कर्तव्य के द्वारा निरन्तर ध्यान रख कर परवरिश करनी होती है तब यह आनन्द धीरे-धीरे बड़ा होता है।

सबसे पहले यह पूतना रूपी अविध्या का उद्धार करता है, और बड़ा होने पर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर आदि रूपी असुरों का उद्धार करता है और साथ ही धैर्य, क्षमा, सरलता, संकल्प, सत्य आदि गोप सखाओं के साथ वह हमारी देहात्म बुद्धि रूपी मटकी को फोड़कर भाव रूपी मक्खन को चुरा लेता है, यही वास्तविक मक्खन मेरे कृष्णा को प्रिय है।

इसी मक्खन को खिलाने के लिये गोपी रूपी हम सभी जीवात्मायें उस कृष्णा को खिलाने के लिये लालायित रहतीं हैं। जिस गोपी का यह भाव रूपी मक्खन शुद्ध होता है केवल उसी के मक्खन की वह चोरी करता है। जब तक किसी गोपी का यह मक्खन वह चुराता नहीं है तब तक वह गोपी पूर्ण तृप्त नहीं होती है।

उस तृप्त गोपी रूपी संत का शब्द रूपी मक्खन का प्रसाद जिस किसी को भी प्राप्त होता है यदि वह उस प्रसाद को जो ग्रहण कर लेता है तो उसका भी स्वभाव मक्खन के समान शुद्ध होता है, यही मनुष्य जीवन की सम्पूर्णता है, इस कृष्ण रूपी आनन्द को प्राप्त करके इस संसार रूपी कारागार में पुन: नहीं आना पड़ेगा।

जब तक बुद्धि के द्वारा मन और वाणी से मनुष्य का कर्म एक नहीं हो जाता तब तक मन शुद्ध नहीं होता है। जब तक मन शुद्ध नहीं हो जाता तब तक आनन्द प्रकट नहीं हो सकता है। आनन्द प्रकट हुये बिना भगवान की शुद्ध भक्ति नहीं हो सकती है इसलिये हमें स्वयं के मन को ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये कि मेरा मन क्या चिंतन कर रहा है।

यदि भगवान का चिंतन नहीं हो रहा है तो संसार का चिंतन हो रहा होगा, संसार के चिंतन से मनुष्य का मन अशुद्ध बना रहता है और भगवान के चिंतन से मन शुद्ध हो जाता है। इसलिये स्वयं के मन को पहिचानने का प्रयत्न करना चाहिये। यह तभी संभव है जब तक हम दूसरों के मन को जानना बन्द नहीं करेंगे।

हम तभी जान पायेंगे कि हमारे अन्दर कौन सा चिंतन चल रहा है। यदि किसी के मन में संसार का चिंतन चल रहा है तो आज से ही भगवान का चिंतन का अभ्यास प्रारम्भ कर देना। क्रम-क्रम से चलकर अभ्यास करने से असंभव कुछ भी नहीं रह जाता है।

अभ्यास की विधि

चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते-जागते अपने सभी कर्तव्य कार्यों को करते हुए प्रभु के किसी भी नाम का जाप और रूप का समरण करते रहना चाहिये, किसी भी कर्तव्य कर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कर्तव्य पालन ही धर्माचरण कहलाता है।

प्रभु के किसी भी छोटे से छोटा नाम का जप करना आसान होता है, जैसे राधे-राधे, राम-राम, श्याम-श्याम या चैतन्य महाप्रभु के द्वारा दिया गया महामन्त्र का जाप करना चाहिये, इसे जपने के लिये किसी भी गुरु से मन्त्र-दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि यह स्वयं सिद्ध मन्त्र है।

महामन्त्र
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

इस प्रकार निरन्तर अभ्यास के द्वारा आपके यहाँ भी आनन्द प्रकट हो जायेगा।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥