॥ भक्ति और ज्ञान का भेद ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
(गीता ५/२)
भावार्थ : सन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्य-योग) और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्म-योग), ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाला है परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ है।

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥
(गीता ५/४)
भावार्थ : अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति ज्ञानी है, प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने को ज्ञानी समझता है, इसीलिये ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाता है। क्योंकि ज्ञानी को ज्ञान की क्या आवश्यकता है, ज्ञान की आवश्यकता तो अज्ञानी को होती है, जो व्यक्ति अपने को अज्ञानी समझता है उसे ही ज्ञान की प्राप्ति हो पाती है।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति भक्त है, प्रत्येक व्यक्ति भक्ति चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने को भक्त समझता है, इसीलिये भक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है। क्योंकि भक्त को भक्ति की क्या आवश्यकता है, भक्ति की आवश्यकता तो अभक्त को होती है, जो व्यक्ति अपने को अभक्त समझता है उसे ही भक्ति प्राप्त हो पाती है।

बिना ज्ञान के भक्ति नहीं हो सकती है, बिना भक्ति के ज्ञान नहीं हो सकता है, ज्ञान से भक्ति प्राप्त हो या भक्ति से ज्ञान प्राप्त हो एक ही बात है। ज्ञान और भक्ति दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, जब तक दोनों बराबर मात्रा में स्वयं के अन्दर प्रकट नहीं हो जाते तब तक कोई भी व्यक्ति कर्म के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है। जब तक व्यक्ति कर्म बंधन से मुक्त नहीं होता है तब तक भगवान का दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता है।

भक्ति के पास आँखे नहीं होती है और ज्ञान के पास पैर नहीं होते हैं, भगवत पथ पर भक्ति ज्ञान की आँखो की सहायता से देख पाती है और ज्ञान भक्ति के पैरों की सहायता से चल पाता है। जब तक ज्ञान और भक्ति साथ-साथ नहीं चलते हैं तब तक भगवत पथ की दूरी तय नहीं हो सकती है।

ज्ञानी व्यक्ति को कभी ज्ञान को श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिये और भक्त को कभी भक्ति को श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान और भक्ति दोनों ही सम्पूर्ण मात्रा में होते हैं। किसी व्यक्ति में ज्ञान अधिक प्रकट होता है तो किसी व्यक्ति में भक्ति अधिक प्रकट होती है, मिलकर दोनों का आदान-प्रदान करना चाहिये।

अधिकतर पुरुषों में ज्ञान की अधिकता प्रकट रहती है और अधिकतर स्त्रीयों में भक्ति की अधिकता प्रकट रहती है, जिस प्रकार स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं उसी प्रकार ज्ञान और भक्ति एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसीलिये भक्त की संगति मिले तो स्वयं को अभक्त समझते हुए भक्तों की संगति करनी चाहिये और यदि ज्ञानी की संगति मिले तो स्वयं को अज्ञानी समझते हुए ज्ञानीयों की संगति करनी चाहिये।

भक्त और ज्ञानी दोनों को किसी से भी बहस नहीं करनी चाहिये, यदि कोई कुछ भी पूछे तो उसे ज्ञानी समझते हुए और स्वयं को अज्ञानी समझते हुए जबाब दे देना चाहिए। जबाब देने के बाद यह विचार भी नहीं करना चाहिये कि मैने क्या जबाब दिया है, क्योंकि विचार करने से उसके परिणाम का विचार मन में उत्पन्न हो जाता है, फल का विचार ही तो बंधन का कारण होता है।

सामने वाला तो बहस करेगा लेकिन उससे विचलित नहीं होना चाहिये बल्कि अपनी समझ के अनुसार शान्त चित्त से जबाब देना चाहिये। जब ऎसा महसूस होने लगे कि सामने वाला व्यक्ति बात को समझ नहीं रहा है तो उससे विनम्रता पूर्वक क्षमा माँगते हुए, मैं तो अज्ञानी हूँ ऎसा कहकर उससे अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिये।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥