॥ हम सभी विशुद्ध आत्माऎं हैं ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

(गीताः २/१३)
जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं।

बात त्रेतायुग की है, अष्टावक्र नामक एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि थे, उनका शरीर आठ भागों में टेढ़ा था, जब वह चलते थे तो साधारण लोग उन्हे देखकर हँसते थे, लेकिन वह हृदय से अत्यन्त पवित्र थे, क्योंकि उन्होने अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कर लिया था, वह शरीर और आत्मा का भेद जानते थे।

एक बार महाराज जनक ने ऋषियों की सभा का आयोजन किया, उस सभा में अष्टावक्र ऋषि को भी आमन्त्रित किया, जैसे ही ऋषि ने सभा में प्रवेश किया वहाँ पर उपस्थित सभी सदस्य उनको देखकर हँसने लगे तो उन सभी को हँसते हुए देखकर ऋषि अष्टावक्र भी जोर-जोर से हँसने लगे, सभी सदस्य एक दूसरे से कहने लगे हम सभी उनको देखकर हँस रहे हैं परन्तु वह तो हमसे भी जोर से हँस रहें है, "इसका क्या कारण है?"

यह सब देखकर राजा जनक ने सिंहासन से उठकर नम्रता-पूर्वक ऋषि अष्टावक्र से पूछा, "हे ऋषि आप किस कारण इतनी जोर से हँस रहे है?"

ऋषि अष्टावक्र ने कहा, "मैं सोच रहा था कि मैं ऋषियों-मुनियों की सभा में आया हूँ, परन्तु मैं तो चमड़े के व्यापारी मोचियों की सभा में पहुँच गया हूँ, एक मोची की दृष्टि केवल चमड़े में होती है, अत: मैं देख रहा हूँ कि आप सभी की दृष्टि मेरी नश्वर चमड़ी पर ही है, इसलिये आप मेरी नित्य-आत्मा का दर्शन नहीं कर पा रहे हैं।

आत्मा की उपेक्षा करके बाहरी नश्वर शरीर को महत्व देना अज्ञान है।

ऋषि अष्टावक्र के शब्दों को सुनकर राजा जनक के हृदय में अत्यन्त पश्चाताप हुआ, वह समझ गये कि ऋषि एक आत्मज्ञानी महापुरुष हैं, यही सिंहासन पर बैठाने योग्य हैं, तब राजा जनक ने भाव-विभोर होकर बड़ॆ आदर के साथ सिंहासन पर बैठाकर उन्हे साष्टांग प्रणाम किया और सद्‍गुरु रूप में स्वीकार किया।

शरीर हमारा स्वरूप नहीं है, यह भौतिक शरीर तो हड्डी, खून, माँस का एक घड़ा मात्र है, मन और बुद्धि भी इस शरीर के अंग ही हैं, परन्तु आत्मा इन सबसे अलग है, बुद्धि इस अनित्य संसार को ही सत्य समझती है और मन इन अस्थायी सांसारिक भावों को ही वास्तविक मानता है, जिसके कारण यह क्षणिंक सुख की अनुभूति ही अत्यधिक दुख का कारण बनती है, हम सभी इस शरीर, मन और बुद्धि से अलग आत्मा हैं।

हमारा यह शरीर तो एक पिंजरे के समान जिसमें जीवात्मा रूपी पक्षी संसारिक भोग इच्छा के कारण कैद हो गया है, हमने अपने वास्तविक स्वरूप की उपेक्षा करके पिन्जरे को ही अपना वास्तविक स्वरूप मान लिया है, हमने अपनी सारी शक्ति इस भौतिक पिंजरे को ही संवारने में लगा रखी है, इस पिंजरे के अन्दर बन्द आत्मा की पूर्ण रूप से उपेक्षा कर रखी है, यह पिंजरा-रूपी शरीर, आत्मा-रूपी पक्षी की मुक्ति के लिये प्राप्त हुआ है न कि पिंजरे की देख-भाल के लिए प्राप्त हुआ है।

यदि हम अपना ध्यान इस शरीर पर स्थिर करके यह अनुभव करें कि यह शरीर हमारी वास्तविक पहचान है अथवा नहीं, तब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि "हम इस शरीर को जानने वाले हैं, हम शरीर नहीं हैं।"

इस प्रकार की बुद्धि एक बच्चे को भी होती है, यदि हम बच्चे को उसकी अंगुली पकड़कर पूँछें, "यह क्या है?" तो बच्चे का उत्तर होगा "यह मेरी अंगुली है।" बच्चा यह कभी नही कहेगा कि "मैं अंगुली हूँ", इस शरीर का प्रत्येक अंग मेरा है परन्तु "मैं कहाँ हूँ? यही जिज्ञासा होनी चाहिये।

जहाँ वाणी की पहुँच नही होती है, मन जिसे प्राप्त नहीं कर पाता है, बुद्धि वहाँ पहुँच नही पाती है, ऐसे आत्म-स्वरूप का जो भाग्यशाली मनुष्य साक्षात्कार कर लेता है वह फिर किसी भी सांसारिक वस्तु से भयभीत नहीं होता है, मृत्यु भी उसका कुछ नही बिगाड़ पाती है, मृत्यु शरीर की होती है, आत्म-ज्ञानी उस मृत्यु का भी साक्षात्कार करता है।

"जब तक बुद्धि द्वारा मन शरीर में स्थित रहता है तब तक जीव अज्ञानी ही बना रहता है और जब बुद्धि द्वारा मन आत्मा में स्थित होने लगता है तब जीव का अज्ञान धीरे-धीरे दूर होने लगता है।"

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

॥ इच्छाओं और आवश्यकताओं के भेद ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥

(गीता ३/३७)

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥

(गीता ३/३८)
रजोगुण से उत्पन्न होने वाली इच्छायें (इन्द्रियों विषयों के प्रति आसक्ति) और क्रोध बडे़ पापी है, इन्हे ही इस संसार में अग्नि के समान कभी न तृप्त होने वाले महान-शत्रु समझो, जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और धूल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार गर्भाशय से गर्भ ढका रहता है, उसी प्रकार कामनाओं से ज्ञान ढका रहता है।

इच्छायें और क्रोध ही मनुष्य के महान शत्रु हैं और इनसे बुद्धि में भ्रम उत्पन्न होता है, भ्रम से बुद्धि का नाश होता है, यदि इच्छायें प्रबल होती हैं तो स्मृति क्षीण होती है, स्मृति क्षीण होने से मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है।

प्रत्येक मनुष्य में एक तो अपनी इच्छायें होती है, और दूसरी अपनी आवश्यकतायें होती है, भोजन करना शरीर की आवश्यकता होती है, स्वस्थ शरीर के लिये आवश्यकता के अनुसार भोजन करना चाहिये, यदि अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करोगे तो बीमार तो होना ही पडेगा, जब इच्छानुसार भोजन नहीं मिलता है तो बहुत दुःख होता है और जब इच्छानुसार भोजन तो मिलता है लेकिन खाने की इच्छा नहीं होती है तो कितनी पीड़ा होती है, इच्छापूर्ति से बन्धन उत्पन्न होता है जबकि आवश्यकतापूर्ति से मुक्ति प्राप्त होती है।

इसीलिये संत कबीर दास जी ने कहा है.....

इच्छा काया, इच्छा माया, इच्छा जग उपजाया।
कहत कबीर इच्छा विवर्जित, ता का पार ना पाया॥

सभी मनुष्य जो कुछ करते हैं, अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं करते है, यही गलती करते रहते हैं, यदि इस गलती को हम सुधार लें तो किसी भी क्षेत्र में आसानी से सफल हो सकते हैं, चाहे वह भौतिक क्षेत्र (कुरु-क्षेत्र) हो या आध्यात्मिक क्षेत्र (धर्म-क्षेत्र) हो।

संसार में कोई भी ऎसा मनुष्य नहीं मिलेगा, जिसमें कोई विशेषता न हो, जिसका कोई इष्ट न हो, हर मनुष्य जरूर किसी न किसी को अवश्य ही मानता है, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें जानने की जिज्ञासा न हो, प्रत्येक मनुष्य कुछ न कुछ जानने की कोशिश तो अवश्य करता ही है, किसी मनुष्य में जानने की जिज्ञासा कम होती है तो किसी मनुष्य में जानने की जिज्ञासा अधिक होती है।

प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि द्वारा जानने की, मन के द्वारा मानने की और इन्द्रियों के द्वारा करने की शक्ति प्रदान की है, यदि मनुष्य इस शक्ति का आवश्यकता के अनुसार उपयोग करता है तो आसानी से जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी दुखों से मुक्त हो सकता हैं और यदि इच्छा के अनुसार उपयोग करता है तो करोड़ों जन्मों में भी इन दुखों से मुक्त नही हो सकता हैं।

साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष आवश्यकता के अनुसार कर्म करते हैं जबकि साधारण मनुष्य इच्छा के अनुसार कर्म करते हैं।

संसार में प्रत्येक वस्तु अपूर्ण है।

प्रत्येक मनुष्य क्षणिक सुख की इच्छा करता है जबकि मनुष्य को कभी न मिटने वाले आनन्द की आवश्यकता है। मनुष्य जब सुख की इच्छा करता है तो दुख की प्राप्ति आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब जीवित रहने की इच्छा करता है लेकिन मरना जीवन की आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब मान की इच्छा करता है तो अपमान सहन करना आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब किसी को अपना बनाने की इच्छा करता है तब अन्य कोई पराया बनना आवश्यकता बन जाती है।

मनुष्य की आवश्यकतायें प्रकृति के सहयोग से आसानी से पूरी हो जाती है लेकिन सभी इच्छायें कभी पूरी नहीं होती है, बच्चा माँ की गोद में आता है तो उस बच्चे की आवश्यकता दूध होती है तो प्रकृति के सहयोग से दूध तैयार हो जाता है, जब बच्चा बड़ा होता है और उसकी आवश्यकता होती है दाँतों की तो उस बच्चे के दाँत आ जाते हैं।

मनुष्य को वायु, जल और अन्न की आवश्यकता होती है, यह सभी आवश्यकतायें आसानी से पूरी हो जाती है, जब मनुष्य मिठाई, नमकीन, तम्बाकू और शराब आदि की इच्छा करता है तो यह इच्छायें ही मनुष्य के जीवन के विनाश का कारण बनती हैं, शरीर को जीवित रखने के लिये इन वस्तुओं की कोई आवश्यकता नही होती है, इच्छाओं की पूर्ति दुख-पूर्वक होती है जबकि आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से हो जाती है।

जब मनुष्य आवश्यकताओं को अज्ञानतावश इच्छायें समझ लेता है तब अनेकों नई इच्छायें उत्पन्न हो जाती है जो कि पुनर्जन्म का कारण होती है, आवश्यकतापूर्ति से ही इच्छाओं की निवृत्ति हो सकती है, इच्छापूर्ति से कभी भी इच्छाओं से निवृत्ति नही हो सकती है।

इच्छा के अनुसार सभी वस्तुयें कभी प्राप्त नही होंगी, इच्छा के अनुसार सभी आपकी बात नहीं मानेंगे, इच्छा के अनुसार सदा तुम्हारा शरीर नहीं रहेगा, शरीर चला जायगा अन्त में इच्छायें रह जायेंगी, अपनों के सुख की इच्छा, धन-सम्पत्ति की इच्छा, पद-प्रतिष्ठा की इच्छा, आदि यह सभी इच्छायें ही पुनर्जन्म का कारण बनती हैं।


जब तक इच्छायें बाकी रहती हैं तब तक मुक्ति असंभव होती है।


॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥