॥ अनन्य भक्ति ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥

(गीताः १३/११)

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
(गीताः १३/१२)
बिना किसी व्यवधान के अनन्य भाव से मेरा चिंतन करना, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा करना, किसी भी प्राणी के प्रति आसक्ति का न होना, आत्मा को जानने की इच्छा करना तथा परम-तत्व को प्राप्त करने की इच्छा का होना, यह सब तो ज्ञान है और इनके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह सब अज्ञान है।

जिस मनुष्य का विवेक जाग जाता है, उसके लिए परमात्मा की प्राप्ति आसान हो जाती है, वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का सार है, भगवान की कथा ही कथा है...... बाकी सब इस जग की व्यथा है।

भगवान के चिंतन, भगवान के ज्ञान, भगवान के ध्यान के अलावा जिसको बाकी सब व्यर्थ लगता है, ऐसे साधक की ही अनन्य भक्ति जगती है, जिसका भगवान के प्रति अनन्य-भाव स्थिर हो गया है, ऎसे भक्त की अन्य किसी से संपर्क रखने की इच्छा नहीं रहती है।

जो लोग सामान्य इच्छाओं को पूर्ण करने में लगे रहते है, सामान्य विषय भोगों को भोगने में अपना जीवन नष्ट करते है, ऐसे लोगों के प्रति सच्चे भक्त को कोई रूचि नहीं होती है, पहले कभी रूचि हुई तब हुई, लेकिन जब अनन्य भक्ति मिलती है तो फिर उदासीनता आ जाती है, वह भक्त सोचता है की सामाजिक व्यवहार चलाने के लिए लोगों के साथ हूँ, वह किसी भी बात का विरोध नहीं करता है, उनकी हाँ में हाँ और उनकी न में न करता है लेकिन मन से महसूस करता है कि यह सब जल्दी निपट जाय तो अच्छा हो।

जिस भक्त के हृदय में अनन्य भक्ति प्रकट होती है, उसके द्वारा पहले जो कुछ किया गया होता है, वह सब उसे अचेत अवस्था में किया हुआ सा लगता है, उसे एकान्त स्थान में रहने की इच्छा उत्पन्न होती है, तब वह भक्त सभी प्राणीयों से दूर रहने लगता है, जो लोग शरीर के लिये कर्म करते हैं वह लोग उस भक्त को बाधक लगते है।

जिस भक्त को ब्रह्म अनुभूति के द्वारा आत्म ज्ञान मिलता है, वह शरीर को भुलाने का अभ्यास करता है, जैसे-जैसे शरीर को भूलने लगता है वैसे-वैसे ही उसे भगवान का ज्ञान दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगता है तभी उसे वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है, तब उसे सभी सांसारिक सुख व्यर्थ लगने लगते है।

जिस भक्त को परमात्मा-प्राप्ति के लिये तड़प उत्पन्न होती है, तब वह अनन्य भाव से भगवान को तीव्रता से भजने लगता है, तब वह भगवान से भगवान को ही चाहता हैं और कुछ नहीं चाहता है.....

ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति जिसके हृदय में उत्पन्न होती है, उसके हृदय में भगवान ज्ञान का प्रकाश भर देते हैं, तब वह भगवान के बल पर ही भगवान को प्राप्त करना चाहता हैं, भगवान की कृपा से ही भगवान को प्राप्त करने वाले ही भगवान की अनन्य भक्ति को प्राप्त कर पाते हैं।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥