॥ भावना के अनुसार फल ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥
(गीताः 7.21)
'जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।'

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌ ॥
(गीताः 9.25)
'देवताओं को भजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को भजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को भजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा भजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता हैं।'

'कर्म स्वयं जड़ होते हैं, कर्ता को उसकी भावना के अनुसार कर्म का फल मिलता है, ' ऐसा समझना कर्मों को अखिल रूप से, सम्पूर्ण रूप से जानना होगा।

कर्म को पता नहीं कि वह कर्म है, शरीर को पता नहीं कि वह शरीर है, मकान को पता नहीं कि वह मकान है, यज्ञ को पता नहीं कि वह यज्ञ है, क्यों? क्योंकि सब जड़ हैं लेकिन कर्ता जिस भावना, जिस विधि से जो-जो कार्य करता है, उसे वैसा-वैसा फल मिलता है।

किसी दुष्ट ने आपको चाकू दिखा दिया तो आप थाने में उसके खिलाफ शिकायत करते हैं, कोई आपको केवल मारने की धमकी देता है तब भी आप उसके विरुद्ध शिकायत करते हैं, लेकिन डॉक्टर न आपको धमकी देता है, न चाकू दिखाता है बल्कि चाकू से आपके शरीर की काट-छाँट करता है, फिर भी आप उसे 'फीस' देते हैं क्यों? क्योंकि उसका उद्देश्य अच्छा था, उद्देश्य था मरीज को ठीक करना, न कि बदला लेना, ऐसे ही आप भी अपने कर्मों का उद्देश्य बदल दो।

आप भोजन बनाओ लेकिन मजा लेने के लिए नहीं, बल्कि ठाकुरजी को प्रसन्न करने के लिए बनाओ, परिवार के लिए, पति के लिए, बच्चों के लिए भोजन बनाओगी तो वह आपका व्यवहारिक कर्तव्य हो जायेगा लेकिन 'परिवारवालों की, पति की और बच्चों की गहराई में मेरा परमेश्वर है, ' ऐसा समझकर परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए भोजन बनाओगी तो वह बंदगी हो जायेगा, पूजा हो जायेगा, मुक्ति दिलाने वाला हो जायेगा।

वस्त्र पहनो तो शरीर की रक्षा के लिए, मर्यादा की रक्षा के लिए पहनो, यदि मजा लेने के लिए, फैशन के लिए वस्त्र पहनोगे, आवारा होकर घूमते फिरोगे तो वस्त्र पहनने का कर्म भी बंधनकारक हो जायेगा।
इसी प्रकार बेटे को खिलाया-पिलाया, पढ़ाया-लिखाया, यह तो ठीक है, लेकिन 'बड़ा होकर बेटा मुझे सुख देगा' ऐसा भाव रखोगे तो यह आपके लिए बंधन हो जायेगा।

सुख का आश्रय न लो, कर्म तो करो कर्तव्य समझकर करोगे तो ठीक है लेकिन ईश्वर की प्रीति के लिए कर्म करोगे तो कर्म, कर्म न रहेगा, साधना हो जायेगा, पूजा हो जायेगा।

कल्पना करो, दो व्यक्ति क्लर्क की नौकरी करते हैं और दोनों को तीन-चार हजार रूपये मासिक वेतन मिलता है, एक कर्म करने की कला जानता है और दूसरा कर्म को बंधन बना देता है, उसके घर बहन आयी दो बच्चों को लेकर, पति के साथ उसकी अनबन हो गयी है, वह बोलता है, "एक तो महँगाई है, 500 रुपये मकान का किराया है, बाकी दूध का बिल, लाइट का बिल, बच्चों को पढ़ाना और यह आ गयी दो बच्चों को लेकर? मैं तो मर गया..." इस तरह वह दिन-रात दुःखी होता रहता है, कभी अपने बच्चों को मारता है, कभी पत्नी को आँखें दिखाता है, कभी बहन को सुना देता है, वह खिन्न होकर कर्म कर रहा है, मजदूरी कर रहा है और बंधन में पड़ रहा है।

दूसरे व्यक्ति के पास उसकी बहन दो बच्चों को लेकर आयी, वह कहता हैः "बहन ! तुम संकोच मत करना, अभी जीजाजी का मन ऐसा-वैसा है तो कोई बात नहीं, जीजाजी का घर भी तुम्हारा है और यह घर भी तुम्हारा ही है, भाई भी तुम्हारा ही है।"

बहनः "भैया ! मैं आप पर बोझ बनकर आ गयी हूँ।"

भाईः "नहीं-नहीं, बोझ किस बात का? तू तो दो रोटी ही खाती है और काम में कितनी मदद करती है ! तेरे बच्चों को भी देख, मुझे 'मामा-मामा' बोलते हैं, कितनी खुशी देते हैं, महँगाई है तो क्या हुआ? मिल-जुलकर खाते हैं। ये दिन भी बीत जायेंगे। बहन तू संकोच मत करना और ऐसा मत समझना कि भाई पर बोझ पड़ता है, बोझ-वोझ क्या है? यह भी भगवान ने अवसर दिया है सेवा करने का।"

यह व्यक्ति बहन की दुआ ले रहा है, पत्नी का धन्यवाद ले रहा है, माँ का आशीर्वाद ले रहा है और अपनी अंतरात्मा का संतोष पा रहा है, पहला व्यक्ति जल भुन रहा है, माता की लानत ले रहा है, पत्नी की दुत्कार ले रहा है और बहन की बद्दुआ ले रहा है।

कर्म तो दोनों एक सा ही कर रहे हैं लेकिन एक प्रसन्न होकर, ईश्वर की सेवा समझकर कर रहा है और दूसरा खिन्न होकर, बोझ समझकर कर रहा है, कर्म तो वही है लेकिन भावना की भिन्नता ने एक को सुखी तो दूसरे को दुःखी कर दिया। अतः जो जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है।

जलियावाला बाग में जनरल डायर ने बहुत जुल्म किया, कितने ही निर्दोष लोगों की हत्या करवायी क्यों? उसने सोचा था कि 'इस प्रकार आजादी के नारे लगाने वालों को जलियाँवाला बाग में नष्ट कर दूँगा तो मेरा नाम होगा, मेरी पदोन्नति होगी, ' लेकिन नाम और पदोन्नति तो क्या, लानतों की बौछारें पड़ी उस पर उससे त्यागपत्र माँगा गया, नौकरी से निकाला गया और शाही महल से बाहर कर दिया गया, अंत में भारतवासियों के उस हत्यारे को भारत के बहादुर वीर ऊधमसिंह ने गोली मारकर नरक की ओर धकेल दिया, मरने के बाद भी कितने हजार वर्षों तक वह प्रेत की योनि में भटकेगा, यह तो भगवान ही जानते हैं।

जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी शहर पर बम गिराने वाला मेजर टॉम फेरेबी का भी बड़ा बुरा हाल हुआ। बम गिराकर जब वह घर पहुँचा तो उसकी दादी माँ ने कहाः "तू अमानवीय कर्म करके आया है, " उसकी अंतरात्मा ग्लानि से फटी जा रही थी, उसने तो इतने दुःख देखे कि इतिहास उसकी दुःखद आत्मकथा से भरा पड़ा है।

जब बुरा या अच्छा कर्म करते हैं तो उसका फल तुरंत चाहे न भी मिले लेकिन हृदय में ग्लानि या सुख-शांति का एहसास तुरंत होता है एवं बुरे या अच्छे संस्कार पड़ते हैं।

अतः मनुष्य को चाहिए कि वह बुरे कर्मों से तो बचे लेकिन अच्छे कर्म भी ईश्वर की प्रीति के लिए करे, कर्म करके सुख लेने की, वाहवाही लेने की वासना को छोड़कर सुख देने की, ईश्वर को पाने की भावना धारण कीजिये। ऐसा करने से आपके कर्म ईश्वर-प्रीतयर्थ हो जायेंगे, ईश्वर की प्रीति के लिए किये गये कर्म फिर जन्म-मरण के बंधन में नहीं डालेंगे वरन् मुक्ति दिलाने में सफल हो जायेंगे।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥