॥ ईश्वर की आराधना कब और कैसे? ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं......

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥
(गीता ३/१९)
भावार्थ : "कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये, क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है।"

"कर्मयोगी" व्यक्ति को सबसे पहले कर्तव्य-कर्म को करना चाहिये, कर्तव्य-कर्म से मुक्त होकर ही किसी भी प्रकार से भगवान की आराधना करनी चाहिये, जो व्यक्ति कर्तव्य कर्म को छोड़कर भगवान की आराधना करते हैं उस व्यक्ति से भगवान कभी प्रसन्न नहीं होते हैं।

"पुराणों के अनुसार जिस-जिस ने भी भगवान को प्राप्त किया केवल अपने कर्तव्य कर्म पर दृड़ रहकर ही प्राप्त किया", कर्तव्य-कर्म को जब अनासक्त भाव से किया जाता है तब कर्तव्य-कर्म ही भगवान की आराधना बन जाता है।

कर्तव्य-कर्म के अतिरिक्त भगवान से जुड़कर जो कुछ भी किया जाता है वह सब भावात्मक रूप से होता है, सबसे पहले कर्तव्य कर्म को ही करना चाहिये, और जब कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जायें तभी भावात्मक रूप से भगवान की आराधना करनी चाहिये, क्योंकि "शास्त्रों के अनुसार भावनात्मक-कर्म से कर्तव्य-कर्म हमेशा श्रेष्ठ होता है"

जो व्यक्ति हाथ में माला-झोली लेकर चलते रहते है और उसे ही भगवान की भक्ति मान लेते हैं, वह प्रभु की भक्ति नहीं है ऎसे व्यक्ति स्वयं को धोखा ही दे रहें है, यह लोग माला का अर्थ ही नहीं जानते है, जो व्यक्ति माला का वास्तविक अर्थ समझ लेता है वह कभी भी गले में या हाथ में माला-झोली लेकर नहीं चलता है।

माला में जो मोती होते हैं उनको मनका कहा जाता है, मनका का अर्थ होता है मन को स्थिर करने वाला साधन, माला में १०८ मनका होते हैं, माला करते समय हर मनका पर मन की स्थिति का अध्यन करना होता है, जब एक माला पूर्ण हो जाती है तब अध्यन करना होता है कि १०८ बार मन्त्र जपने पर मन कितनी बार भगवान में स्थिर हुआ।

जब निरन्तर माला करते-करते सम्पूर्ण माला पर जिस व्यक्ति का मन पूर्ण स्थिर हो जाता है तब उस व्यक्ति के लिये माला का कोई महत्व नहीं रह जाता है, क्योंकि तब उस व्यक्ति का हर कर्म माला ही बन जाता है।

मन स्थिर केवल एक स्थान पर ही बैठकर हो सकता है, चलते हुए माला करने पर मन कभी स्थिर नहीं हो सकता है, जो व्यक्ति चलते हुए माला करते हैं, उनका मन भगवान में कभी स्थिर नहीं हो सकता है, ऎसे व्यक्ति स्वयं को ही धोखा दे रहे होते हैं।

इसलिये माला एकान्त स्थान में या मन्दिर में ही करनी चाहिये क्योंकि एकान्त में या भगवान की मूर्ति के सामने ही मन स्थिर हो सकता है, चलते-फिरते माला करने वाले समाज की दृष्टि में भले ही भक्त कहलायें और अहंकार से ग्रस्त होकर अपने आप को भले ही भक्त समझने लगे लेकिन भगवान की दृष्टि में तो वह मूढ़ ही होते हैं, ऎसे व्यक्ति कभी भी भगवान की कृपा प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

क्योंकि भक्ति का अर्थ प्रभु से प्रेम करना होता है, प्रेम में स्मरण होता है, स्मरण गोपनीय होता है, इसलिये भक्ति को गोपनीय कहा गया है, भक्ति कोई प्रदर्शन की वस्तु नही होती है, इससे समाज भले ही अनुकूल हो जाये लेकिन भगवान तो प्रतिकूल हो जाते हैं।

कुछ व्यक्ति अपने कर्तव्य-कर्म को छोड़कर अपने गुरु का प्रचार करने में लगे रहते हैं, उसे ही आध्यात्मिक उन्नति समझ लेते है, कुछ व्यक्ति आध्यात्मिक किताबों को पढ़कर और उस किताबी ज्ञान को बाँटकर स्वयं को बहुत बडे ज्ञानी समझकर अपने अहंकार को बढाते रहते हैं।

जो व्यक्ति उनकी प्रशंसा करने वाले होते हैं, उन लोगों को वह अपना मित्र समझते हैं, वास्तव में वह उनके सबसे बड़े दुश्मन होते हैं क्योंकि वह उनकी अहंकार रूप अग्नि को हवा देते रहते हैं और वह उनकी प्रशंसा से स्वयं को ज्ञानी समझने लगते हैं, ऎसे व्यक्ति कभी भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाते हैं।

ज्ञान बाँटने का अधिकारी केवल वही होता है जिसमें ज्ञान स्वयं प्रकट होता है, या जो गुरु परम्परा से गुरु पद पर आसीन होता है, हर व्यक्ति को स्वयं को पहचानने का प्रयास करना चाहिये कि क्या उसमें वास्तविक ज्ञान स्वयं प्रकट हुआ है कि नहीं, यदि ज्ञान प्रकट नहीं हुआ है तब तक प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक स्तर पर अज्ञानी ही होता है।

उस व्यक्ति को शिष्य अवस्था पर ही स्थित रहना चाहिये, शिष्य का एक ही धर्म हैं सुनकर या पढ़कर जहाँ से भी ज्ञान प्राप्त हो उसे ग्रहण करके आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिये, ऎसा करने से एक दिन ज्ञान स्वयं प्रकट होने लगेगा तब वह व्यक्ति ज्ञान बाँटने का अधिकारी हो जाता है।

शिष्य स्तर पर स्थित व्यक्ति को कभी भी आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा सार्वजनिक स्थान पर नहीं करनी चाहिये, ऎसे व्यक्ति न तो आध्यात्मिक उन्नति कर पाते हैं और न ही भौतिक उन्नति कर पाते हैं, गुरु बनकर कभी भी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है, जो अच्छा शिष्य होता है वही एक दिन अच्छा गुरु स्वत: ही बन जाता है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ उन्नति के नियम ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥
(गीता १६/२३)
भावार्थ : जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है। वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है।


१. आप उन्नति करना चाहते हैं, तो विश्वास के साथ धैर्य धारण करें।

२. जब तक आपको यह विश्वास न हो, कि सामने वाला व्यक्ति मुझसे अधिक बुद्धिमान है, तब तक उस व्यक्ति से प्रश्न कभी नहीं करना चाहिये। हमेशा स्वयं को मूर्ख, और सामने वाले व्यक्ति को बुद्धिमान समझकर वार्तालाप करें।  

३. जब आप किसी बुद्धिमान व्यक्ति से प्रश्न करें तो कम से कम शब्दों में करें, और प्रश्न करते समय समझाने की भावना नहीं होनी चाहिये, समझाने की भावना से समझने की भावना समाप्त हो जाती है। 

४. जब तक आपको अपने पहले प्रश्न का उत्तर नहीं मिल जाये, तब तक दूसरा प्रश्न कभी नहीं करें, और जो भी उत्तर मिले, उसे सहज भाव से स्वीकार करें।

५. उत्तर को स्वीकार करते समय समझने की इस भावना में रहें कि उत्तर देने वाला सही है, मेरी ही समझ में नहीं आया है, बाद में एकान्त में विचार करें, जब आपका मन उसे स्वीकार करे तभी उस उत्तर को स्वीकार करें। 

६. आप जब तक उत्तर से पूर्ण संतुष्ट न हो जाये, तब तक उसी प्रश्न से संबन्धित प्रश्न ही करें, उत्तर के ऊपर कभी प्रश्न न करें, जब आप उत्तर पर प्रश्न करेंगे तो वार्तालाप बहस का रूप धारण कर लेगी।

७. आपसे जब कोई प्रश्न करे, तो कम से कम शब्दों में उत्तर देने का प्रयत्न करें, और केवल अपना ही दृष्टिकोण ही प्रस्तुत करें, उत्तर देते समय समझाने की भावना का त्याग करें।

८. जब भी किसी भी प्रकार की वार्तालाप बहस में परिवर्तित महसूस हो तो, क्षमा माँगकर वाद-विवाद से बचने का प्रयत्न करें, क्योंकि वाद-विवाद से क्रोध उत्पन्न होने के कारण बुद्धि नष्ट हो जाती है। 

९. आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा कभी सार्वजनिक स्थान पर नहीं करें, सार्वजनिक स्थान पर आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा, हमेशा बहस के रूप में परिवर्तित हो जाती है, आध्यात्मिक ज्ञान ही सत्य है, सत्य को निर्मल मन से धारण करें। 

१०. आध्यात्मिक वार्तालाप करते समय बुद्धि का उपयोग न करके मन का ही उपयोग करें, बुद्धि का उपयोग भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये करें।

११. जब भी कभी अपने से बड़ी आयु वाले व्यक्ति से वार्तालाप करें, तो उनकी बात को कभी काटने का प्रयत्न नहीं करें। यदि अपने से बड़ों की बात समझ में न आये, फिर भी उनकी बात का विरोध कभी न करें। 

१२. आप से आयु में बड़ा व्यक्ति गलत हो सकता है, फिर भी उनको समझाने की कोशिश न करें, केवल यही सोचें कि उनको समझाने के लिये उनके बड़े हैं, और नहीं तो सबसे बड़े समझाने वाले भगवान तो हैं। 

१३. आप जब भी किसी से वार्तालाप करें, तो पहले यह विचार अवश्य कर लें, कि मैं समझना चाहता हूँ, या समझाना चाहता हूँ, दोनों प्रकार की वार्तालाप एक साथ करने से वाद-विवाद की संभावना अधिक होती है। 

१४. जब आप कुछ समझना चाहते हैं, तो धैर्य धारण करके समझने का प्रयास करें, और शरीर के साथ मन को भी रखने का प्रयास करें, वार्तालाप के समय प्रायः शरीर के साथ मन नहीं होता है।   


१५. जब आप किसी को कुछ समझाना चाहतें हैं, तो केवल अपनी बात ही व्यक्ति के सामने रखें, वह व्यक्ति समझा कि नहीं इस बात का चिंतन न करें, समझना या न समझना, सामने वाले व्यक्ति का कर्म होता है, और स्वयं के लिये वह परिणाम होता है। 

१६. कर्म करना मनुष्य के हाथ में होता है, लेकिन कर्म का परिणाम मनुष्य के हाथ में नही होता है, यह परिणाम की आसक्ति ही मनुष्य के दुख का कारण होती है। 

१७. जब तक उत्तर देने वाला व्यक्ति, उत्तर देकर शान्त न हो जाये, तब तक बीच में न बोलें, बीच में बोलने से उत्तर देने वाले व्यक्ति का ध्यान भंग हो जाता है, जिससे सिर्फ समय बर्बाद ही होता है।

अक्सर, ऎसा देखने में आता है, वास्तव में तो हम समझना चाहतें है, लेकिन हम समझाने लग जाते हैं, इस बात का एहसास ही नहीं हो पाता है, कि हम समझ रहें हैं, या समझा रहें हैं, इस कारण हम समझ नहीं पाते है, और समय तो अपनी चाल से गुजर ही जाता है, गुजरा हुआ समय कभी वापिस नहीं आता है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ उद्धव गोपी लीला का तात्पर्य ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥
(गीता ५/४)
अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है।

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
(गीता ५/५)
जो सांख्य-योगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही निष्काम कर्म-योगियों द्वारा भी प्राप्त किया जाता है, इसलिए जो मनुष्य सांख्य-योग और निष्काम कर्म-योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही वास्तविक सत्य को देख पाता है।

निष्काम कर्म-योग:- बिना किसी फल की आसक्ति के कर्तव्य कर्म के द्वारा ज्ञान प्रकट होता है, ज्ञान से वैराग्य उत्पन्न होता है और इन दोनों की प्राप्ति के बाद ही भक्ति की प्राप्ति होती है, भक्ति से ही भगवान की प्राप्ति होती है, इस प्रक्रिया को "निष्काम कर्म-योग" कहते हैं।

सांख्य-योग:- फल की आसक्ति से कर्तव्य कर्म पूर्ण होने के बाद ही वैराग्य को धारण किया जाता है, वैराग्य से ज्ञान प्रकट होता है और इन दोनों की प्राप्ति के बाद ही भक्ति की प्राप्ति होती है, भक्ति से ही भगवान की प्राप्ति होती है, इस प्रक्रिया को "सांख्य-योग" कहते हैं।

कर्म तो दोनों ही अवस्था में हर हाल में करना ही पड़ता है, इन दोनों मार्गों में प्रवेश केवल भगवान की कृपा से ही मिल पाता है, इन दोनों मार्गों से ही मनुष्य़ जीवन की परम-सिद्धि रूप भगवान की प्राप्ति होती है।

भगवान की कृपा केवल उन्ही को प्राप्त हो पाती है जो अपने कर्तव्य कर्मों को अच्छी प्रकार से करते हैं, इसलिये हर व्यक्ति को पहले अपने संसारिक गुरु से कर्तव्य कर्म की ही शिक्षा लेनी चाहिये, क्योंकि कर्तव्य कर्म को किये बिना किसी भी व्यक्ति को इन दोनों मार्गो में प्रवेश नहीं मिल सकता है, इन मार्गों में बिना प्रवेश हुए भगवान की प्राप्ति असंभव है।

कोई भी व्यक्ति बिना कर्तव्य कर्म को किये बिना वैराग्य धारण नहीं कर सकता है, यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्म को जाने बिना कर्म करता है तो वह पाप और पुण्य के चक्कर में पड़कर संसार में जन्म और मृत्यु को निरन्तर प्राप्त होता रहता है।

यदि कोई बिना कर्तव्य कर्म को किये वैराग्य धारण करता है, या अपने को ज्ञानी समझकर कर्तव्य कर्मों का त्याग करता है या अपने कर्तव्य कर्मों को त्याग कर भगवान की भक्ति रूप कर्म करता है तो वह व्यक्ति स्वयं का ही शत्रु होता है।

ऎसा व्यक्ति न तो संसार का ही रह पाता है और न ही भगवान का हो पाता है, वह त्रिशंकु की तरह बीच में ही लटक जाता है, ऎसे जीव को न तो पुरुष शरीर ही प्राप्त होता है और न ही स्त्री शरीर प्राप्त हो पाता है।

पूर्व जन्म में जो ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण ऋषि थे वही गोपीयों के रूप में स्त्री शरीर धारण करके उत्पन्न हुए थे, स्त्री शरीर में गोपीयाँ ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण थीं परन्तु उनमें ज्ञान और वैराग्य प्रकट नहीं था, भगवान श्रीकृष्ण ने गोपीयों को अपने बाल स्वरूप से भक्ति प्रदान की थी, बाल रूप से भक्ति इसलिये प्रदान की थी जिससे गोपीयों में काम वासना न उठ सके, यह काम वासना ही भक्ति में सबसे बड़ी वाधा होती है। इस प्रकार गोपीयों को भक्ति के द्वारा ज्ञान, वैराग्य की प्राप्ति करके तीनों से परिपूर्ण होने पर ही परमहँस अवस्था को प्राप्त हुयीं थीं।

उद्धव पुरुष शरीर में था, जो पुरुष ज्ञान और वैराग्य में पूर्ण स्थित होता है तो उस पुरुष में काम-वासना नहीं होती है, उद्धव में भी ज्ञान और वैराग्य पहले से ही प्रकट थे, भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव को राधारानी के स्वरूप से भक्ति प्रदान की थी, राधारानी के रूप में भक्ति इसलिये प्रदान की थी कि उद्धव ज्ञान और वैराग्य में पूर्ण स्थित था इसलिये वह भक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी था। इस प्रकार ज्ञान और वैराग्य के द्वारा भक्ति को प्राप्त करके तीनों से परिपूर्ण होने पर ही परमहँस अवस्था को प्राप्त हुआ था।

इस लीला का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि भगवान यह शिक्षा दी है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं होता है, लेकिन दोनों के धर्म अलग-अलग हैं जो एक दूसरे के पूरक होते हैं, पुरुष को जो शिक्षा स्त्री से मिल सकती है वह पुरुष से नहीं मिल सकती है, और स्त्री को जो शिक्षा पुरुष से मिल सकती है वह स्त्री से नहीं मिल सकती है।

ज्ञान और वैराग्य के द्वारा भक्ति प्राप्त हो या भक्ति के द्वारा ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति हो, जब तक तीनों की प्राप्ति न हो जाये तब तक परमहँस अवस्था प्राप्त होना असंभव है।

कोई भी व्यक्ति तब तक भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता है जब तक वह परमहँस अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाता है, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से परिपूर्ण अवस्था ही परमहँस अवस्था कहलाती है, यह परमहँस अवस्था ही गोपी भाव कहलाता है।

मनुष्य को जीवन के परम-लक्ष्य को पाने के लिये क्रमश: तीन गुरुओं की अवश्यता होती है....

१. सांसारिक गुरु,
२. आध्यात्मिक गुरु,
३. सदगुरु।

सांसारिक गुरु से हमें कर्तव्य कर्म की शिक्षा प्राप्त करनी होती है, आध्यात्मिक गुरु से हमें ज्ञान और वैराग्य की शिक्षा ग्रहण करनी होती है, तब जाकर सदगुरु की प्राप्ति होती है जो कि किसी भी शरीर में साक्षात भगवान स्वयं ही होते हैं जो हमें भक्ति की प्रदान करते हैं।

सांसारिक गुरु:- हर व्यक्ति को सांसारिक गुरु जन्म के साथ ही मिलते हैं, आयु और शिक्षा के अनुसार बदलते रहते हैं। यह सभी गुरु हमें सांसारिक कर्तव्य कर्मो की शिक्षा देते हैं।

व्यक्ति का सबसे पहला गुरु उसकी माता दूसरा गुरु पिता और तीसरा गुरु अध्यापक होते हैं, शिक्षा के अनुसार अध्यापक बदलते जाते हैं, फिर शादी के बाद पति और पत्नी एक दूसरे के गुरु ही होते हैं, जब हम किसी व्यक्ति से कहीं जाने का रास्ता पूछते हैं तो वह व्यक्ति भी कुछ समय के लिये हमारा गुरु ही होता है, इस प्रकार सांसारिक गुरु हमें हर कदम मिलते हैं।

आध्यात्मिक गुरु:- जब व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुये अपने आध्यात्मिक उत्थान की कामना करता है तब आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता होती हैं, आध्यात्मिक गुरु का संग करने पर ही सत्संग आरम्भ होता है, जिनके द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा शब्द रूप में ही मिलती है, जब व्यक्ति गुरु की आज्ञा के अनुसार कर्म करने लगता है तो व्यक्ति का अज्ञान मिटने लगता है, अज्ञान मिटने के साथ ही वैराग्य उत्पन्न होना शुरु होता है तभी व्यक्ति को गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर हो पाता है।

सदगुरु:- जब व्यक्ति की पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास आध्यात्मिक गुरु में स्थिर हो जाता है तो गुरु रूप उस शरीर से उस व्यक्ति के लिये सदगुरु के रूप में भगवान स्वयं प्रकट होकर अपना परिचय स्वयं कराते हैं, और अनुभव कराकर विश्वास दिलाते हैं, जब व्यक्ति को सम्पूर्ण विश्वास हो जाता है तो उस व्यक्ति के शरीर रूप रथ के सारथी भगवान स्वयं हो जाते हैं, तब जीव कर्तापन के भाव से मुक्त हो जाता है, इस अवस्था पर ही अहंकार समाप्त हो पाता है, यहाँ से वह शरीर में स्थित जीव वर्तमान कर्म-फलों से मुक्त हो जाता है।

वह जीव शरीर में रहकर भी सभी वर्तमान कर्म-फलों से मुक्त रहता है, वह जीव वर्तमान शरीर में पूर्व जन्मों के कर्म-फलों को भोगकर शरीर त्याग के साथ भगवान के नित्य परम-धाम में प्रवेश पा जाता है, जहाँ पहुंचकर कोई भी जीव वापिस इस संसार में नहीं आता है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है।

उद्धव और गोपीयों मे कोई भेद नहीं है, जो लोग उद्धव को निम्न समझते हैं, और गोपीयों को श्रेष्ठ समझते हैं उनसे बड़ा मूर्ख और अपराध करने वाला संसार में अन्य कोई और नहीं हो सकता है।

जिसे संसार में भक्ति के नाम से जाना जाता है, वह तो जो भी संसार में अन्य कर्म होते हैं उनके समान ही कर्म होता है, वास्तविक भक्ति तो प्राप्त होती है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ माया एक मात्र धोखा है ॥

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमिश्रिताः॥ 
(गीताः ७/१५)
मनुष्यों में अधर्मी और दुष्ट स्वभाव वाले मूर्ख लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते है, ऐसे नास्तिक-स्वभाव धारण करने वालों का ज्ञान मेरी माया द्वारा हर लिया जाता है।

भगवान की माया बहुत प्रबल है, मनुष्य को जल्दी से पता चलने नहीं देती कि वह क्या चाहता है, हम जिन चीजों की इच्छा कर रहे हैं वे चीजें जिनके पास हैं क्या वह तृप्त हो गये हैं? हम जो कुछ चाहते हैं क्या वह जीवन का सही लक्ष्य है? हम जो कुछ बनाये जा रहे हैं, सजाये जा रहे, क्या वह साथ जायेगा? माया में हमारी बुद्धि उलझी हुई रह जाती है।

अज्ञान से हमारा ज्ञान ढक गया है, हम मोहित हो गये हैं, जीव ब्रह्म-पद से जन्तुओं की श्रेणी में आ गया हैं, यदि जीव माया के तीन गुणों से बचने की विधि जान ले, मोहनिशा से जाग जाये भगवान की शरण ग्रहण प्राप्त कर ले, ऎसी समझ पा ले तो पता चलेगा कि अनेक जन्मों से हमने अपने ही साथ धोखा किया है।

हम अपने साथ कभी बुरा करना नहीं चाहते लेकिन हम वही स्वभाव को अपनाते रहे हैं जिससे हमारा अहित ही होता आया है, हम वे ही पदार्थ चाहते हैं जिन पदार्थों के कारण हमारा ज्ञान ढ़का रहता है, हम वही सुविधाएँ चाहते हैं जिससे हमारा मन दुर्बल बना रहता है, और जिससे मनोबल नष्ट हो जाता है।

हम केवल वही पद चाहते हैं जिससे हमारा मिथ्या अहंकार बढ़ता रहता है, हम वही सुख चाहते हैं जिससे हमारी वासनाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती हैं, इस कारण हमारी वासनाएँ कभी निवृत्त नहीं हो पातीं, अगर वासना निवृत्त होने वाले सुख में गोता खायें तो बेड़ा पार हो जायेगा, वह केवल भगवान का नाम ही है।

वासनाओं को भड़काने वाला सुख कामनाओं की पूर्ति करने वाला सुख है, विषयों का सुख है, कामनाओं का सुख लेते हुए हम अनेको जन्मों से भटकते आये हैं, अनेकों जन्मों से जीते आये हैं, हमारा यह मनुष्य जन्म है, शायद इस बात को समझ पाएँ, इस वचन को हम समझ जाएँ कि यह सब माया है।

माया का अर्थ होता है धोखा, माया का अर्थ होता है जो नहीं है फिर भी दिखलाई देता है, माया का अर्थ होता है जिसका वास्तविक अस्तित्व नहीं है, वास्तविक सार नहीं है, वास्तविक सत्ता नहीं है फिर भी सब कुछ प्रतीत होता है, जो वास्तव में है ही नहीं उससे लड़ना तो मूर्खता ही होगी।

मिट्टी का कोई पुतला जमीन से लड़ने जाय, कोई घट चट्टान से लड़ने जाय तो क्या होगा? फूट ही जाएगा, ऐसे ही हमारा यह स्थूल शरीर है, हमारा मन है, हमारी बुद्धि है, हमारा कारण शरीर है, यह सब माया के द्वारा निर्मित हुए हैं, विशाल ब्रह्माण्डों में विखरी हुई इसी माया की सत्ता से निर्मित हुए इन साधनों से ही माया को जीतने की इच्छा करेंगे तो जीतना असंभव है, जिसप्रकार बुलबुला सागर को वश करना चाहे तो सागर का बुलबुले के वश होना असंभव है।

बुलबुला सागर को वश में न करने का प्रयत्न छोड़कर, बुलबुला अपनी वास्तविक स्थिति को जान ले तो पता चलेगा कि मैं पानी ही हूँ, सागर भी तो पानी ही पानी है, जिसप्रकार बुलबुला पानी की शरण ग्रहण कर लेता है तो बुलबुला भी सागर हो जाता है, उसीप्रकार जीव अपना वास्तविक रूप जानकर भगवान की शरण ग्रहण कर लेता है तो उस जीव के लिए माया से पार पाना आसान हो जाता है।

कोई भी मनुष्य माया में रहते हुए, मन में रहते हुए, बुद्धि में रहते हुए, शरीर में रहते हुए, अहंकार में रहते हुए, कोई भी मनुष्य अपनी अक्ल से, अपने बाहुबल से, अपने धन से, अपने वैभव से, अपने मित्रों के सहारे, अपनी सत्ता की कुर्सी के द्वारा अगर माया को पार करना चाहता है तो वह उसीप्रकार नादान है, मानो वह सागर पर गद्दे बिछाकर सागर को पार करना चाहता है।

यह माया तीन गुणों से युक्त होती है उसके किसी न किसी गुण से हम अपना अहंकार जोड़ देते हैं, जैसे नींद आती है शरीर की थकान के कारण, यानि तम गुण के कारण और हम कहते हैं कि मुझे नींद आ रही है, भूख लगती है शरीर को लेकिन हमारा अहंकार कहता है कि मुझे भूख लग रही है, खुशी होती है मन को लेकिन हम सोचते हैं मुझे खुशी प्राप्त हो रही है, शोक होता है मन को और हम सोचते हैं कि मैं दुःखी हूँ।

माया के गुणों के साथ हम एक रूप स्वत: ही हो जाते हैं क्योंकि हमने भगवान की शरण ग्रहण नहीं की हैं, इसलिये हम माया के गुणों की शरण हो स्वत: ही हो जाते हैं, हम भगवान के शरणागत नहीं हुए हैं इसलिए मान-अपमान की शरण स्वत: ही हो जाते हैं, हमने भगवान की शरण नहीं ली हैं इसलिए अपनी कल्पना शक्ति के शरण स्वत: ही हो जाते हैं और खुद ही खो जाते हैं गुणों के अधीन होकर, अपनी अक्ल है नहीं और दूसरों का मानना भी नहीं है, इसी का नाम माया है।

माया गुणमयी है इस माया से किसी का भी मनुष्य का स्वयं बच पाना असंभव है, धन-सम्पदा का अहंकार, सत्ता या पद का अहंकार, धर्मात्मा होने का अहंकार, पुण्यात्मा होने का अहंकार, भगवान का सेवक होने का अहंकार, योग साधक होने का अहंकार, भक्त होने का अहंकार, कुछ न कुछ होने का अहंकार हमारे चित्त में पैदा कर ही देती है।

माया तब तक हमें अपनी लपेटे में लेती रहती है, तब तक हमें इस भवकूप गिराती रहती है, जब तक हम परमात्मा के पूर्ण शरणागत नहीं जाते हैं, जब तक हम में सभी प्रकार की भूख मिटकर परम-तत्व भगवान की ही भूख नहीं रह जाती है तब तक माया हमसे मजदूरी कराती ही रहती है।

हम धन कमायेंगे तभी सुखी हो पायेंगे, हमें पद-प्रतिष्ठा मिलेगी तो सुखी हों पायेंगे, शत्रु मर जायेगा तभी सुखी हो पायेंगे, मित्र आ जायेगा तो सुखी हो जायेंगे, ये सब मन की कल्पना मात्र हैं और मन तो माया से ही बना हुआ है।

शरीर तो बना है माया की मिट्टी से, अभिमान होता है कि मैं यह हूँ, मन बना है माया के सूक्ष्म तत्त्वों से, हमें अभिमान होता है कि मैंने अच्छा काम किया, मैंने बुरा काम किया, मैंने पाप किया, मैंने पुण्य किया, अरे! तू करने वाला है कौन? उस अनन्त की हवाएँ लेकर तू अपने फेफडों को चला रहा है, उस भगवान के तेज अंश की सत्ता से सूर्य की किरणें तुम्हे जीवित रख रही हैं, तेरा अपना क्या है?

वास्तव में तो भगवान की ऐसी अदभुत करुणा है, कृपा है कि देने वाला हमें दिखाई नहीं देता है और जो कुछ मिलता है उसे हम अपना समझ लेते हैं, शरीर भगवान ने दिया है, सभी वैज्ञानिक मिलकर भी एक राई का एक दाना बना नहीं सकते है, मिट्टी का एक नया कण भी नही बना सकते है, जो कुछ बनाएँगे वह अनन्त भगवान की बनायी हुई चीजों को ही जोड़कर ही बना पायेंगे और फिर उसमें मैं और मेरा करके मालिक बन जाएँगे फिर कहेंगे यह मेरा है।

यदि घर तुम्हारा है तो क्या घर में लगी की ईंटें तुमने बनायी हैं?
नहीं, कुम्हार ने बनायी है।

कुम्हार ने कैसे बनायी है?
मिट्टी, पानी और आग से बनाई है।

मिट्टी कुम्हार ने बनायी?
नहीं।

आग कुम्हार ने बनायी?
नहीं।

पानी कुम्हार ने बनाया?
नहीं।

पानी कुम्हार का नहीं, आग कुम्हार की नहीं, मिट्टी कुम्हार की नहीं तो ईंटें कुम्हार की कैसे हो सकती हैं? ईंटें कुम्हार की नहीं हैं तो यह ईंटें तुम्हारी भी नहीं हैं, जब ईंटें तुम्हारी नहीं हैं तो घर तुम्हारा कैसे हो सकता है।

लेकिन माया में उलझकर बोलते हैं कि यह मेरा घर है, व्यवहार के लिए मान लो, कह लो यह मेरा घर है यह तेरा घर है, लेकिन अन्दर से तो यही विचार करो कि यह किसका घर? क्या मैं, क्या मेरा?

यदि निरन्तर इतना ही विचार कर लिया तो सभी विकार स्वयं ही जलकर भस्म हो जायेंगे और यही जीवन आपका अन्तिम जीवन बन जायेगा, यही मानव जीवन का एक मात्र लक्ष्य है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ ऊखल लीला का तात्पर्य ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(गीता: 4/9)
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) होते हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

जब तक मनुष्य प्रेम-भक्ति से भगवान अपना बनाने में लगा रहता है तब तक भगवान मनुष्य के बन्धन में नहीं बँधते हैं, जब मनुष्य भगवान को मन सहित बुद्धि को पूर्ण समर्पित कर देता है तब भगवान उस भक्त के बन्धन में हो जाते हैं। ऊखल लीला के माध्यम से भगवान ने हम सभी को यह शिक्षा दी है।

भगवान जिस भक्ति रूपी डोरी से, ऊखल रूपी मनुष्य से बँधते हैं, जब तक मनुष्य में अहंमता और ममता रूपी दो ऊँगल रहते हैं, तब तक भक्ति रूपी डोरी दो ऊँगल छोटी ही बनी रहती है।

डोरी=प्रेम=भक्ति!

ऊखल=(ऊ+खल)=(उल्टा+दुष्ट)=मनुष्य!

एक ऊँगल=(मैं)=(अहमता)=(मिथ्या अहंकार)=(कर्तापन का भाव)=शरीर को कर्ता मानना!

दूसरा ऊँगल=(मेरा)=(ममता)=(मोह)=जो अपना नहीं है उसे अपना समझना!

भगवान से प्रेम इन छ: भावों के द्वारा किया जा सकता है।

१. मैया यशोदा की तरह (वात्सल्य भाव से)

२. अर्जुन की तरह (सख्य भाव से)

३. गोपीयों की तरह (माधुर्य भाव से)

४. अक्रुर की तरह (दास्य भाव से)

५. उद्धव की तरह (ज्ञान भाव से)

६. सुदामा की तरह (शान्त भाव से)

जब कोई मनुष्य इन छ: भावों में से किसी भी एक भाव में पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास से शरणागत भाव में स्थित होकर भगवान की भक्ति करता है तो एक दिन भगवान की कृपा का पात्र बन जाता है।

जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा का पात्र बन जाता है तो उस मनुष्य के हृदय में भगवान का ब्रह्म स्वरूप में ज्ञान का प्राकट्य होने लगता है।

जब तक माता यशोदा ममता के वश में होकर कान्हा को अपना पुत्र समझकर अहमता के वश में होकर कहतीं हैं कि आज मैं तोहे डोरी से बाँधुंगी, तब तक वह डोरी दो ऊँगल छोटी ही रहती है।

जब माता यशोदा कहतीं है कि लाला मैं तो हार गयी, यहाँ माता यशोदा का पूर्ण समर्पण होता है, तब भगवान की कृपा से दोनों अहमता और ममता मिट जाने से प्रेम रूपी डोरी पूर्ण हो जाती है, उस डोरी में भगवान स्वयं बँधकर ऊखल से बँध जाते हैं।

तब भगवान ऊखल रूपी जीव के द्वारा अहमता और ममता रूपी नलकूबर और मणिग्रीव स्वरूप वृक्षों को जड़ से ही उखाड़ देते हैं।

इस लीला के माध्यम से भगवान ने यह शिक्षा दी है कि भगवान अतिरिक्त हर वस्तु ज़ड़ स्वरूप ही है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ मानव जीवन के सिद्धान्त ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं...

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
(गीता २/४७)
"तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और कर्म न करने में तेरी आसक्ति भी न हो।"

मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह भगवान की अनन्य-भक्ति को प्राप्त करना होता है, अनन्य-भक्ति को प्राप्त को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है।

अनन्य भक्ति प्राप्त करने का सबसे सुलभ मार्ग फल की इच्छा के बिना किये जाने वाला कर्म है जिसे गीता में भगवान श्री कृष्ण ने निष्काम कर्म मार्ग बताया है।

मनुष्य जीवन के लिये वेदों के अनुसार तीन सिद्दान्त (कर्म, योग और ज्ञान) ही बताये गये है।

असतो मा सदगमय!
तमसो मा ज्योतिर्गमय!!
मृत्योर्मा अमृतं गमय!!!

१. असत्य की ओर नहीं, सत्य की ओर चलें!
(कर्म का सिद्धान्त)

२. मोह रूपी अन्धकार की ओर नहीं, आत्मा रूपी दिव्य-ज्योति की ओर चलें!!
(योग या अध्यात्म का सिद्धान्त)

३. मृत्यु की ओर नहीं, अमरता की ओर चलें!!! 
(ज्ञान का सिद्धान्त)

कर्म के सिद्धान्त के अन्तर्गत चार पुरुषार्थ बताये गये हैं। 
(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)

योग के सिद्धान्त के अन्तर्गत अष्टांग योग बताया गया है। 
(यम, नियम, आसन, प्राणयाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान, समाधि)

ज्ञान के सिद्धान्त के अन्तर्गत शास्त्रों का अध्यन बताया गया है। 
(वेद, उपनिषद, पुराण)

प्रत्येक मनुष्य को अपनी सुलभता के अनुसार इनमें से किसी भी एक सिद्धान्त का पालन करना चाहिये, गीता के अनुसार कर्म का सिद्धान्त का पालन करना सबसे आसान है, क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में "निष्काम कर्म-योग" को ही "भक्ति-योग" कहा है।

कर्म के सिद्धान्त की व्याख्या

कर्म के सिद्धान्त के अन्तर्गत चार पुरुषार्थ बताये गये हैं!

गीता के अनुसार कर्म के सिद्धान्त के अन्तर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का निष्काम भाव से पालन करना ही भगवान की भक्ति कहलाती है।

१. धर्मः- शास्त्रों के अनुसार कर्म करना "धर्म" कहलाता है, शास्त्रों में वर्णित प्रत्येक व्यक्ति के अपने "नियत कर्म यानि कर्तव्य-कर्म" (देश, समय, स्थान, वर्ण और वर्णाश्रम के अनुसार) करना ही धर्म कहलाता है, स्वधर्म प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग और निजी होता है।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं...

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
(गीता ३/३५)
"दूसरों के कर्तव्य-कर्म (धर्म) को भली-भाँति अनुसरण (नकल) करने की अपेक्षा अपना कर्तव्य-कर्म (स्वधर्म) को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है।"

२. अर्थः- धर्मानुसार धन का संग्रह करना ही "अर्थ" कहलाता है, किसी को भी कष्ट दिये बिना आवश्यकता के अनुसार धन का संग्रह करना अर्थ कहलाता है, अर्थ का संग्रह आवश्यकता के अनुसार ही करना चाहिये, आवश्यकता से अधिक धन से दोष-युक्त कामनायें और विकार उत्पन्न होते हैं।

३. कामः- धर्मानुसार कामनाओं की पूर्ति करना ही "काम" कहलाता है, शास्त्रों के अनुसार कामनाओं की पूर्ति करने से ही सभी भौतिक कामनायें मिट पाती हैं, कामनाओं की पूर्ति में ही कामनाओं का अन्त छिपा होता है, जब सभी कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जाते हैं, जब केवल ईश्वर प्राप्ति की कामना ही शेष रहती है, तभी जीव भगवान की कृपा का पात्र बन पाता है, तभी भगवान की कृपा प्राप्त होती है।

४. मोक्षः- धर्मानुसार सभी कामनाओं का सहज भाव से त्याग हो जाना ही "मोक्ष" कहलाता है, भगवान की कृपा प्राप्त होने पर ही सम्पूर्ण समर्पण के साथ ही सभी सांसारिक कामनाओं का अन्त हो पाता है, तभी जीव को भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त होती है, जिसे प्राप्त करके जीव परमानन्द स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर परमगति को प्राप्त हो जाता है।

जो व्यक्ति धैर्य और विश्वास के साथ ईश्वर पर आश्रित होकर मनुष्य जीवन के चारों पुरुषार्थों का क्रमशः पालन करता है वही परमगति प्राप्त हो पाता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ भक्ति वृद्धि के नियम ॥

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
(गीताः १२/२)
जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण-साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्य स्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं।

१. जिस विधि से भक्ति वृद्धि को प्राप्त होती है, उस विधि का निरूपण किया जाता है, सांसारिक आसक्ति के त्याग से, कृष्ण कथा सुनने से और कृष्ण नाम के कीर्तन से ही भक्ति रूपी बीज दृढ़ स्थित होता है।

२. घर में रहकर ही अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करते हुए ही भक्ति का बीज दृढ़ होता है, सांसारिक इच्छाओं को सीमित कर मन को स्थिर करके मूर्ति पूजा के द्वारा, कथा श्रवण आदि विधियों से भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते रहना चाहिये।

३. सांसारिक इच्छाओं के होते हुए भी चित्त को श्रीहरि के श्रवण आदि में प्रयत्न करके निरन्तर लगाये रखना चाहिए, और तब तक लगाये रखना चाहिये जब तक भगवान से प्रेम तथा आसक्ति और राग उत्पन्न न हो जाये।

४. शास्त्रों के अनुसार भक्ति के बीज को तभी दृढ़ स्थित कहा जा सकता है जब-तक अन्य किसी के प्रति प्रेम और आसक्ति नहीं रह जाती है और घर के प्रति स्वत: ही आसक्ति का अन्त नहीं हो जाता है।

५. जब घर एक बाधक और शरीर, आत्मा से अलग लगने लगता है, केवल श्रीकृष्ण की भक्ति ही एकमात्र कर्म हो जाता है, तभी प्राणी कृतार्थ हो पाता है।

६. कर्तव्य पूर्ण हो जाने पर या भक्ति के प्राप्त होने पर भी सदैव घर में निवास करने से भक्ति का विनाश हो जाता है, इसलिए घर का त्याग करके मन को भगवान की भक्ति में स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये।

७. इस प्रकार निरन्तर प्रयत्न करने से सम्पूर्ण रूप से शुद्ध भक्ति में स्थिरता प्राप्त हो जाती है, घर त्याग करने में दुष्ट लोगों की संगति और भोजन प्रमुख बाधाएँ होती हैं।

८. इसलिए भगवान के मंदिर के समीप तथा भक्तों के साथ निवास करना चाहिये, भक्तों के पास रहें या भक्तों से दूर रहें लेकिन इस प्रकार रहना चाहिये जिससे मन दूषित न हो सके।

९. भगवान की सेवा करने से या भगवान की कथा श्रवण करने से जिस प्रकार से भी भगवान के प्रति आसक्ति दृड़ हो सके, इस प्रकार जीवन की अन्तिम श्वांस तक सेवा या श्रवण करते रहना चाहिए।

१०. किसी बाधा की संभावना से या हठपूर्वक एकान्त में रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिये बल्कि भय मुक्त होकर प्रसन्नता पूर्वक एकान्त में रहना चाहिये, क्योंकि भगवान श्री कृष्ण निश्चित रूप से सभी प्रकार से रक्षा करते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिये।

११. इस प्रकार भगवत प्राप्ति की इच्छा वालों के लिये शास्त्रों के गूढ़ तत्त्व का निरूपण किया गया है, जो भी इस विधि का दृड़ता-पूर्वक पालन करता है, वह भगवान में दृढ़ स्थिति को प्राप्त ही जाता है।

१२. इस प्रकार भगवान प्राप्ति की इच्छा वालों के लिये शास्त्रों के रहस्यमय तत्त्व का निरूपण किया गया है, जो भी इस विधि का स्थिरता के साथ पालन करता है, वह भगवान में स्थिर स्थिति को प्राप्त हो ही जाता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ भक्ति का वास्तविक स्वरूप ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
(गीता १२/६)

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥
(गीता १२/७)
जो मनुष्य अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करके मेरी शरण होकर अनन्य भाव से भक्ति-योग में स्थित होकर निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मेरी आराधना करते हैं। मुझमें स्थिर मन वाले उन मनुष्यों का मैं जन्म-मृत्यु रूपी संसार-सागर से अति-शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ।

भगवान, परमात्मा और ब्रह्म एक होते हुए भी अलग ही हैं। किसी भी मनुष्य की वास्तविक भगवद भक्ति तो ब्रह्म-ज्ञान प्रकट होने के बाद ही आरम्भ होती है। मनुष्य में ब्रह्म-ज्ञान का प्रकट होना ही ब्रह्म साक्षात्कार कहलाता है। जिस मनुष्य में ब्रह्म-ज्ञान प्रकट हो जाता है वही ब्राह्मण अवस्था को प्राप्त होता है और वही वास्तविक ब्राह्मण होता है, उसके द्वारा बोले जाने वाला प्रत्येक शब्द ब्रह्म-वाक्य होता है।

ब्रह्म-ज्ञान सभी प्राणी मात्र में स्थित है, क्योंकि जहाँ ब्रह्म है वहीं ब्रह्मज्ञान है, आत्मा ही ब्रह्म है जो प्रत्येक प्राणी मात्र में स्थित है।

जगदगुरु आदि शंकराचार्य जी कहते हैं....

अहं ब्रह्मास्मि!
हम सभी परब्रह्म के अंश ब्रह्म स्वरूप ही हैं।

इसी पर गुरु नानक देव जी कहते हैं....

हर घट मेरा सांइया, खाली घट न कोय।
बलिहारी जा घट की, ता में प्रकट होय॥
हर प्राणी के शरीर में भगवान ब्रह्म स्वरूप में रहते है, कोई भी प्राणी का शरीर ऎसा नहीं है जिसमें भगवान नहीं हैं। सार्थकता तो उस उस शरीर रूपी मनुष्य की है, जिसमें वह प्रकट होता है।

संसार में प्रत्येक कर्म को करने के लिये क्रमश: ही चलने का विधान है, जिस प्रकार आगे बढ़ने के लिये पिछले कदम को छोड़ना पड़ता है, जब तक पिछले कदम को नहीं छोड़ते है तो अगला कदम नहीं उठ सकता है तब तक कोई आगे नहीं बढ़ सकता हैं। उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिये....

(१) जब तक मनुष्य निष्काम भाव से कर्म नहीं करता है तब तक मनुष्य का अज्ञान दूर नहीं हो सकता है।

(२) जब तक मनुष्य का अज्ञान दूर नहीं होता है तब तक मनुष्य में ज्ञान प्रकट नहीं हो सकता है।

(३) जब तक मनुष्य में ज्ञान प्रकट नहीं हो जाता है तब तक कोई भी मनुष्य पूर्ण शरणागत नहीं हो सकता है।

(४) जब तक मनुष्य पूर्ण शरणागत नहीं होता है तब तक मनुष्य को भगवान की शरणागति प्राप्त नहीं हो सकती है।

(५) जब तक मनुष्य को भगवान की शरणागति प्राप्त नहीं होती है तब तक मनुष्य वास्तविक भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है।

(६) जब तक मनुष्य को वास्तविक भक्ति प्राप्त नहीं होती है तब तक मनुष्य को भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

(७) जब तक मनुष्य को भगवान की प्राप्ति नहीं होती है तब तक मनुष्य की जन्म-मृत्यु रूपी यात्रा पूर्ण नहीं हो सकती है।

(८) जब तक मनुष्य की जन्म-मृत्यु रूपी यात्रा पूर्ण नहीं होती है तब तक मनुष्य का जन्म-मृत्यु का क्रम चलता रहता है।

जगदगुरु आदि शंकराचार्य जी कहते हैं....

पुनरपि जननम पुनरपि मरणम, 
पुनरपि जननी जठरे शयनम।
बार-बार जन्म लेना, बार-बार मरना, फिर से जन्म लेना और फिर से मर जाना। जन्म से पहले हम कहाँ थे और मरने के बाद कहाँ होंगे यह कोई नहीं जानता है।

भक्ति के द्वारा ही भक्ति प्राप्त होती है, एक भक्ति वह होती है जिसे किया जाता है और दूसरी भक्ति वह होती है जो भगवान की कृपा से प्राप्त होती है।

जो भक्ति की जाती है वह तो भक्ति रूपी कर्म होता है, और जो भक्ति भगवान की कृपा से प्राप्त होती है वह भक्ति पथ होता है। सभी अन्य कर्मों की अपेक्षा भक्ति-कर्म श्रेष्ठ है।

जो कुछ भी किया जाता वह कर्म होता है, जो कुछ भी प्राप्त होता है वह भगवान की कृपा होती है इस बात से यह सिद्ध होता है कि एक साधारण मनुष्य जिसे भक्ति के नाम से जानता है वह वास्तव में भक्ति कर्म ही है।

गीता के अनुसार......

ईश्वर प्राप्ति के दो ही मार्ग है, "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग"।

इन दोनों मार्गों में से किसी एक मार्ग का धर्मानुसार अनुसरण करके ही भक्ति-मार्ग में प्रवेश मिलता है, भक्ति मार्ग में प्रवेश पाना ही मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।

इन दोनों ही मार्गों में कर्म का आचरण तो करना ही होता हैं, प्रत्येक व्यक्ति इन दोनों में से ही किसी एक का अनुसरण कर रहा है। परन्तु आधिकतर मनुष्य सकाम भाव से कर्म करते है। जब तक निष्काम भाव उत्पन्न नहीं होगा तब तक "कर्म-योग" का आचरण नहीं हो सकता है और तब तक किसी भी मनुष्य का योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

योग किसे कहते हैं?

"योग" का अर्थ होता है "जोड़ना या मिलाना" जो भी कर्म हमारा भगवान से जोड़ने में या भगवान से मिलन कराने मे सहायक हो उसी को योग कहते हैं।

पूजा किसे कहते है?

पूजा शब्द दो शब्दों को जोड़ कर बना है....पू=पूर्ण और जा=मिलाना..... जो भी कर्म हमें पूर्ण से मिलाने में सहायक हों उसे पूजा कहते हैं। पूर्ण केवल भगवान ही हैं बाकी सभी तो अपूर्ण हैं।

जिस प्रकार मूर्ति-पूजा, भगवान का गीत गाना (भजन), तीर्थ यात्रा करना, पाठ करना, माला द्वारा मंत्र जप करना आदि को जिसे भक्ति-योग कहते हैं, यह भी कर्म-योग के अंतर्गत ही आती है।

जब तक भक्ति-कर्म भी निष्काम भाव से नहीं होगा तब तक भक्ति-योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ ब्रह्म, परमात्मा और भगवान ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥
(गीता ७/३)
हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक ही मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है।

अपनी गलती का एहसास करके दुबारा न करने का संकल्प करना ही प्रायश्चित होता है, प्रायश्चित करने वाले को तो भगवान भी माफ़ कर देते हैं। आपका विश्वास ही विश्व की श्वांस परमात्मा है। जब आपका जिस दिन किसी भी एक व्यक्ति पर पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर हो जाता है तभी से उस शरीर से आपको भगवान का साक्षात आदेश मिलना प्रारम्भ हो जाता है।

जिनके गुरु हैं उन सभी को अपने गुरु में पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये, किसी भी गुरु रूपी शरीर को भगवान नहीं समझ लेना चाहिये, उस गुरु रूपी शरीर के मुख से निकलने वाले शब्द तो साक्षात भगवान का ब्रह्म-स्वरूप रूपी ब्रह्म-वाणी होती है।

गुरु के शरीर की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये कि वह क्या करतें हैं गुरु के तो केवल शब्दों पर ही ध्यान देना चाहिये। गुरु से कभी भी बहस नहीं करनी चाहिये, गुरु से प्रश्न भी कम से कम शब्दों में और निर्मल भाव से करना चाहिये। प्रश्न को कभी भी समझाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।

समस्त प्रयत्न करने के बाद भी गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर नहीं हो पाता है तो ऎसे गुरु का त्याग कर देना ही उचित होता है। ऎसे गुरु के त्याग में ही शिष्य का हित छिपा होता है। गुरु वह होता जिसके सानिध्य से मन को शान्ती और आनन्द का अनुभव हो, न कि किसी प्रकार का भार महसूस हो।

आनन्द ही भगवान का शब्द-ब्रह्म स्वरूप होता है, इसलिये गुरु के द्वारा ही ब्रह्म का साक्षात्कार शब्द-ब्रह्म रूप में होता है जो पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास के साथ उस शब्द-रूपी ब्रह्म को धारण कर लेता है उसी में से वह ब्रह्म ज्ञान रूप में प्रकट होने लगता है। मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव को भगवान का साक्षात्कार क्रमश: तीन रूप में होता है!.....

१. ब्रह्म-स्वरूप (शब्द-ज्ञान रूप में)
२. परमात्म-स्वरूप (निर्गुण निराकार रूप में)
३. भगवद्‍-स्वरूप (सगुण साकार रूप में)

जब तक मनुष्य को स्वयं में ब्रह्म का अनुभव नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक मनुष्य को कर्म तो करना ही पड़ता है, मनुष्य के द्वारा जो भी किया जाता है वह सभी कर्म ही होते हैं, किसी भी कर्म को करते-करते जब मनुष्य सकाम भाव को त्याग कर निष्काम भाव से कर्म करने लगता है तभी से उसके मन की शुद्धि होने लगती है।

जैसे-जैसे मनुष्य के मन की शुद्धि होती जाती है वैसे-वैसे ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव होने लगता है, तभी शब्दों का वास्तविक अर्थ समझ में आने लगता है, यहीं से ज्ञान स्वयं प्रकट होने लगता है इसी को ब्रह्म-साक्षात्कार कहतें है।

ब्रह्म साक्षात्कार के बाद ही मनुष्य पूर्ण रूप से प्रभु के शरणागत होने की विधि को जानने लगता है, जैसे-जैसे मनुष्य अपने जीवन का प्रत्येक क्षण प्रभु को समर्पित करता चला जाता है वैसे-वैसे ही वह अपनी आत्मा की ओर बढने लगता है तब उसे आत्मा में ही परमात्मा का अनुभव लगता है।

यहीं से जीव स्वयं को अकर्ता और आत्मा को कर्ता समझने लगता है और तभी से वह जीव कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है, तब जीव का वह मनुष्य रूपी शरीर केवल एक यन्त्र मात्र रह जाता तब उस शरीर के द्वारा जो भी कर्म होते हुए दिखाई देंते हैं वह किसी भी प्रकार के फल उत्पन्न नहीं कर पाते हैं।

जब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव पूर्व जन्मों के फल (प्रारब्ध) को सम्पूर्ण रूप से भोग लेता है तब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव मनुष्य रूपी शरीर का त्याग होने के बाद भगवान का साकार रूप में दर्शन करके भगवान के धाम में प्रवेश पा जाता है जहाँ पहुँच कर जीव नित्य आनन्द में लीन होकर "सच्चिदानन्द" स्वरूप में स्थित हो जाता है, यहीं मनुष्य जीवन का एक मात्र परम-लक्ष्य होता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ मन और बुद्धि के भेद ॥


भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
(गीता ६/३५)
हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं के त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास के द्वारा वश में किया जा सकता है।

भगवान ने हमें समस्त भौतिक कर्मों को करने के लिये तीन वस्तु दी हैं, (१) बुद्धि, (२) मन और (३) इन्द्रियों का समूह यह शरीर। बुद्धि के द्वारा हमें जानना होता है, मन के द्वारा हमें मानना होता है और इन्द्रियों के द्वारा हमें करना होता है।

इसके लिये पहले इच्छा और कामना का भेद समझना होगा, कामनाओं का जन्म बुद्धि के द्वारा होता है, और इच्छाओं का जन्म मन में होता है। बुद्धि का वास स्थान मष्तिष्क होता है और मन का वास स्थान हृदय होता है, बुद्धि विषयों की ओर आकर्षित होकर कामनाओं को उत्पन्न करती हैं और इच्छायें प्रारब्ध के कारण मन में उत्पन्न होती हैं। कामना जीवन में कभी पूर्ण नहीं होती है, इच्छा हमेशा पूर्ण होती हैं।

बुद्धि के अन्दर विवेक होता है, यह विवेक केवल मनुष्यों में ही होता है, अन्य किसी योनि में नहीं होता है। यह विवेक हंस के समान होता है। इस विवेक रूपी हंस के द्वारा "जल मिश्रित दूध" के समान "शरीर मिश्रित आत्मा" में से जल रूपी शरीर और दूध रूपी आत्मा का अलग-अलग अनुभव किया जाता है, जो जीव आत्मा और शरीर का अलग-अलग अनुभव कर लेता है तो वह जीव केवल दूध रूपी आत्मा का ही रस पान करके तृप्त हो जाता है और शरीर रूपी जल की आसक्ति का त्याग करके वह निरन्तर आत्मा में ही स्थित होकर परम आनन्द का अनुभव करता है।

मनुष्य शरीर रथ के समान है, इस रथ में घोडे रूपी इन्द्रियाँ हैं, लगाम रूपी मन है, सारथी रूपी बुद्धि है और रथ के दो स्वामी जीव कर्ता-भाव में अहंकार से ग्रसित रहता है और आत्मा द्रृष्टा-भाव में मुक्त रहता है। जब तक जीव का विवेक सुप्त अवस्था में रहता है तब तक जीव स्वयं को कर्ता समझकर शरीर रूपी रथ के इन्द्रियों रूपी घोड़ो को मन रूपी लगाम से बुद्धि रूपी सारथी के द्वारा चलाता रहता है, तो जीव कर्म के बंधन में फंसकर कर्म के अनुसार सुख-दुख भोगता रहता है।

बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

जब जीव का विवेक भगवान की कृपा से सत्संग के द्वारा जाग्रत होता है तब जीव मन रुपी लगाम को बुद्धि रुपी सारथी सहित आत्मा को सोंप देता है तब जीव अकर्ता भाव में द्रृष्टा-भाव में स्थित होकर मुक्त हो जाता है।

जब तक जीव के शरीर रूपी रथ का बुद्धि रूपी सारथी मन रुपी लगाम को खींचकर नही रखता है तो इन्द्रियाँ रुपी घोंडे अनियन्त्रित रूप से विषयों की ओर आकर्षित होकर शरीर रुपी इस रथ को दौड़ाते ही रहते हैं, और अधिक दौड़ने के कारण शरीर रुपी रथ शीघ्र थककर चलने की स्थिति में नही रह जाता है फिर एक दिन काल के रूप में एक हवा का झोंका आता है और जीव को पुराने रथ से उड़ाकर नये रथ पर ले जाता है।

आत्मा ही जीव का परम मित्र है, वह जीव को कभी भी अकेला नहीं छोड़ता है, वही जीव का वास्तविक हितैशी है, इसलिये वह भी जीव के साथ नये रथ पर चला जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक जीव स्वभाव द्वारा बुद्धि सहित मन को आत्मा को नहीं सोंप देता है।

मन चंचल कभी नहीं होता है, बुद्धि चंचल होती है, बुद्धि की चंचलता के कारण ही मन चंचल प्रतीत होता है। क्योंकि मन बुद्धि के वश में होता है बुद्धि मन को अपने अनुसार चलाती है तो बुद्धि की आज्ञा मान कर मन उधर की ओर चल देता है, हम समझतें हैं मन चंचल है।

जिस प्रकार कोई कोई पति अपनी पत्नी के पूर्ण आधीन होता है तो वह जोरु का गुलाम कहलाता हैं, और जब पत्नी अपने पति के पूर्ण आधीन रहती है तो वह पतिव्रता स्त्री कहलाती है, ठीक उसी प्रकार बुद्धि पत्नी (स्त्रीलिंग) स्वरूपा है और मन (पुल्लिंग) पति स्वरूप है, जब मन, बुद्धि के आधीन होता है तो वह जोरु के गुलाम की तरह नाचता रहता है, और जब बुद्धि स्वयं मन के आधीन हो जाती है तो वह स्थिर हो जाती है तो मन भी स्थिर हो जाता है।

मनुष्य को अपने मन रूपी दूध का बुद्धि की मथानी बनाकर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि असुरों और धैर्य, क्षमा, सरलता, संकल्प, सत्य आदि देवताओं द्वारा अहंकार की डोरी से मथकर भाव रूपी मक्खन का भोग प्रभु को लगाना चाहिये। यही माखन मेरे कृष्णा को अत्यन्त पसन्द है। जो छाछ बचेगी वह मेरा कान्हा आपसे स्वयं माँग कर खुद ही पी लेगा, मन रूपी दूध का कोई भी अंश नहीं शेष नहीं रहता है। यही मनुष्य जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ नन्द उत्सव और माखन लीला का तात्पर्य ॥


भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(गीता ४/९)
अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

सभी जीव संसार रूपी कारागार में ही जन्म लेते हैं, जन्म लेकर गोकुल रूपी शरीर में प्रवेश करते हैं, और जिस जीव का नन्द रूपी मन होता है तो उसी के आंगन में महामाया रूपी कन्या के स्थान पर आनन्द स्वरूप श्री स्वयं कृष्ण प्रकट हो जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य को इस आनन्द की यशौदा रूपी यश और वात्सल्य रूपी कर्तव्य के द्वारा निरन्तर ध्यान रख कर परवरिश करनी होती है तब यह आनन्द धीरे-धीरे बड़ा होता है।

सबसे पहले यह पूतना रूपी अविध्या का उद्धार करता है, और बड़ा होने पर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर आदि रूपी असुरों का उद्धार करता है और साथ ही धैर्य, क्षमा, सरलता, संकल्प, सत्य आदि गोप सखाओं के साथ वह हमारी देहात्म बुद्धि रूपी मटकी को फोड़कर भाव रूपी मक्खन को चुरा लेता है, यही वास्तविक मक्खन मेरे कृष्णा को प्रिय है।

इसी मक्खन को खिलाने के लिये गोपी रूपी हम सभी जीवात्मायें उस कृष्णा को खिलाने के लिये लालायित रहतीं हैं। जिस गोपी का यह भाव रूपी मक्खन शुद्ध होता है केवल उसी के मक्खन की वह चोरी करता है। जब तक किसी गोपी का यह मक्खन वह चुराता नहीं है तब तक वह गोपी पूर्ण तृप्त नहीं होती है।

उस तृप्त गोपी रूपी संत का शब्द रूपी मक्खन का प्रसाद जिस किसी को भी प्राप्त होता है यदि वह उस प्रसाद को जो ग्रहण कर लेता है तो उसका भी स्वभाव मक्खन के समान शुद्ध होता है, यही मनुष्य जीवन की सम्पूर्णता है, इस कृष्ण रूपी आनन्द को प्राप्त करके इस संसार रूपी कारागार में पुन: नहीं आना पड़ेगा।

जब तक बुद्धि के द्वारा मन और वाणी से मनुष्य का कर्म एक नहीं हो जाता तब तक मन शुद्ध नहीं होता है। जब तक मन शुद्ध नहीं हो जाता तब तक आनन्द प्रकट नहीं हो सकता है। आनन्द प्रकट हुये बिना भगवान की शुद्ध भक्ति नहीं हो सकती है इसलिये हमें स्वयं के मन को ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये कि मेरा मन क्या चिंतन कर रहा है।

यदि भगवान का चिंतन नहीं हो रहा है तो संसार का चिंतन हो रहा होगा, संसार के चिंतन से मनुष्य का मन अशुद्ध बना रहता है और भगवान के चिंतन से मन शुद्ध हो जाता है। इसलिये स्वयं के मन को पहिचानने का प्रयत्न करना चाहिये। यह तभी संभव है जब तक हम दूसरों के मन को जानना बन्द नहीं करेंगे।

हम तभी जान पायेंगे कि हमारे अन्दर कौन सा चिंतन चल रहा है। यदि किसी के मन में संसार का चिंतन चल रहा है तो आज से ही भगवान का चिंतन का अभ्यास प्रारम्भ कर देना। क्रम-क्रम से चलकर अभ्यास करने से असंभव कुछ भी नहीं रह जाता है।

अभ्यास की विधि

चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते-जागते अपने सभी कर्तव्य कार्यों को करते हुए प्रभु के किसी भी नाम का जाप और रूप का समरण करते रहना चाहिये, किसी भी कर्तव्य कर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कर्तव्य पालन ही धर्माचरण कहलाता है।

प्रभु के किसी भी छोटे से छोटा नाम का जप करना आसान होता है, जैसे राधे-राधे, राम-राम, श्याम-श्याम या चैतन्य महाप्रभु के द्वारा दिया गया महामन्त्र का जाप करना चाहिये, इसे जपने के लिये किसी भी गुरु से मन्त्र-दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि यह स्वयं सिद्ध मन्त्र है।

महामन्त्र
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

इस प्रकार निरन्तर अभ्यास के द्वारा आपके यहाँ भी आनन्द प्रकट हो जायेगा।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ भक्ति और ज्ञान का भेद ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
(गीता ५/२)
भावार्थ : सन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्य-योग) और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्म-योग), ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाला है परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ है।

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥
(गीता ५/४)
भावार्थ : अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति ज्ञानी है, प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने को ज्ञानी समझता है, इसीलिये ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाता है। क्योंकि ज्ञानी को ज्ञान की क्या आवश्यकता है, ज्ञान की आवश्यकता तो अज्ञानी को होती है, जो व्यक्ति अपने को अज्ञानी समझता है उसे ही ज्ञान की प्राप्ति हो पाती है।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति भक्त है, प्रत्येक व्यक्ति भक्ति चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने को भक्त समझता है, इसीलिये भक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है। क्योंकि भक्त को भक्ति की क्या आवश्यकता है, भक्ति की आवश्यकता तो अभक्त को होती है, जो व्यक्ति अपने को अभक्त समझता है उसे ही भक्ति प्राप्त हो पाती है।

बिना ज्ञान के भक्ति नहीं हो सकती है, बिना भक्ति के ज्ञान नहीं हो सकता है, ज्ञान से भक्ति प्राप्त हो या भक्ति से ज्ञान प्राप्त हो एक ही बात है। ज्ञान और भक्ति दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, जब तक दोनों बराबर मात्रा में स्वयं के अन्दर प्रकट नहीं हो जाते तब तक कोई भी व्यक्ति कर्म के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है। जब तक व्यक्ति कर्म बंधन से मुक्त नहीं होता है तब तक भगवान का दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता है।

भक्ति के पास आँखे नहीं होती है और ज्ञान के पास पैर नहीं होते हैं, भगवत पथ पर भक्ति ज्ञान की आँखो की सहायता से देख पाती है और ज्ञान भक्ति के पैरों की सहायता से चल पाता है। जब तक ज्ञान और भक्ति साथ-साथ नहीं चलते हैं तब तक भगवत पथ की दूरी तय नहीं हो सकती है।

ज्ञानी व्यक्ति को कभी ज्ञान को श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिये और भक्त को कभी भक्ति को श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान और भक्ति दोनों ही सम्पूर्ण मात्रा में होते हैं। किसी व्यक्ति में ज्ञान अधिक प्रकट होता है तो किसी व्यक्ति में भक्ति अधिक प्रकट होती है, मिलकर दोनों का आदान-प्रदान करना चाहिये।

अधिकतर पुरुषों में ज्ञान की अधिकता प्रकट रहती है और अधिकतर स्त्रीयों में भक्ति की अधिकता प्रकट रहती है, जिस प्रकार स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं उसी प्रकार ज्ञान और भक्ति एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसीलिये भक्त की संगति मिले तो स्वयं को अभक्त समझते हुए भक्तों की संगति करनी चाहिये और यदि ज्ञानी की संगति मिले तो स्वयं को अज्ञानी समझते हुए ज्ञानीयों की संगति करनी चाहिये।

भक्त और ज्ञानी दोनों को किसी से भी बहस नहीं करनी चाहिये, यदि कोई कुछ भी पूछे तो उसे ज्ञानी समझते हुए और स्वयं को अज्ञानी समझते हुए जबाब दे देना चाहिए। जबाब देने के बाद यह विचार भी नहीं करना चाहिये कि मैने क्या जबाब दिया है, क्योंकि विचार करने से उसके परिणाम का विचार मन में उत्पन्न हो जाता है, फल का विचार ही तो बंधन का कारण होता है।

सामने वाला तो बहस करेगा लेकिन उससे विचलित नहीं होना चाहिये बल्कि अपनी समझ के अनुसार शान्त चित्त से जबाब देना चाहिये। जब ऎसा महसूस होने लगे कि सामने वाला व्यक्ति बात को समझ नहीं रहा है तो उससे विनम्रता पूर्वक क्षमा माँगते हुए, मैं तो अज्ञानी हूँ ऎसा कहकर उससे अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिये।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥

॥ मनुष्य जीवन का उद्देश्य - शरणागति ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
(गीताः ७/१४)
यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं।

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना है। अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है। यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं।

इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। जीवात्मा रूपी हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।

भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है।

वास्तव में संसार को हमारे से जो अपेक्षा है, वही संसार हमारे से चाहता है। हमें अपनी शक्ति को पहचान कर संसार से किसी प्रकार की अपेक्षा न रखते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की इच्छा को पूरी करनी चाहिए। इस प्रकार से कार्य करने से ही जीवात्मा रूपी हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकतें हैं। सामर्थ्य से अधिक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करने से हम पुन: कर्म बंधन में बंध जाते हैं। हमें कर्म बंधन से मुक्त होने के लिये ही कर्म करना होता है, कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है। मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त होने पर ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम-लक्ष्य स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

जब तक संसार को हम अपना समझते रहेंगे और संसार से किसी भी प्रकार की आशा रखेंगे, तब तक परम-लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। जब तक अपना सुख, आदर, सम्मान चाहते रहेंगे तब तक परमात्मा को अपना कभी नहीं समझ सकेंगे। परमात्मा की कितनी भी बातें कर लें, सुन भी लें, पढ़ भी लें लेकिन जब तक सुख की चाहत बनी रहेगी तब तक भगवान में मन नहीं लग पायेगा।

हम परमात्मा से परमात्मा को नहीं चाहते है, हम परमात्मा से संसारिक सुख, सांसारिक मान, सांसारिक सम्पदा चाहते हैं।

जब तक हमारे अन्दर परमात्मा से परमात्मा को ही पाने की चाहत नहीं होगी तब तक परमात्मा को कैसे प्राप्त हो सकेंगे? संसारिक सभी रिश्ते तो स्वार्थ के रिश्ते हैं, हमारी जितनी सामर्थ्य हो सके उतना ही सांसारिक रिश्तों को निभाने का प्रयत्न करना चाहिये। हमें अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की सेवा करनी चाहिये, स्वयं के सुख-सुविधा की अपेक्षा संसार से नही करनी चाहिये।

परमात्मा में हमारा मन तभी लग पायेगा जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि संसार में न तो हमारा कभी कोई था, न ही कभी कोई हमारा होगा और न ही कोई हमारा है। केवल भगवान ही हमारे थे, भगवान ही हमारे हैं और भगवान ही हमारे रहेंगे। इस संसार में कोई हमारा हो भी नहीं सकता है जो हमें चिर स्थाई सुख-सुविधा और प्रसन्नता दे सके। संसार में तो सभी सुख-सुविधा के भूखे हैं, मान के भूखे हैं, संपत्ति के भूखे हैं तो वह हमारे को सुख-सुविधा, मान-सम्मान, धन-संपदा कैसे दे सकते हैं?

किसी कवि ने लिखा है........
दाता एक राम, भीखारी सारी दुनियाँ।
राम एक देवता, पुजारी सारी दुनियाँ॥

संसार में तो हर कोई भिखारी हैं। इस संसार में तो हर एक भिखारी हर दूसरे भीखारी से भीख ही तो माँग रहा है लेकिन भ्रम के कारण स्वयं को दाता समझता है। जब कि दाता तो केवल परमात्मा ही है। हम जहाँ भी जाते है, वहाँ अपना स्वार्थ और अपनी सुख-सुविधा ही देखते हैं। अपने मान की अपेक्षा रखते हैं, अपना स्वागत चाहते हैं, अपनी तारीफ सुनना चाहते है। यह सब हमें संसार से मिलता तो है यह सब क्षणिक मात्रा में लेकिन धोखा अधिक मिलता है। हमें दूसरों को सुख और प्रेम देना चाहिये परन्तु लेने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये।

मनुष्य के लिये दूसरों की सेवा करना और भगवान को निरन्तर याद करना यह दो कर्म मुख्य है। यदि जो मनुष्य यह दो कर्म नहीं करता हैं तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता है, बल्कि ऎसा मनुष्य पशु-पक्षीयों के समान ही होता है। जब हम किसी भी व्यक्ति से आदर-सम्मान चाहते हैं उससे हमें सम्मान नही मिलता है तो हमें कष्ट का अनुभव होता है तब हम कहते हैं वह व्यक्ति अच्छा नहीं है। यह किसी को जानने की कसौटी नहीं है। बिना किसी मतलब के हर किसी का आदर-सम्मान तो भगवान और भगवान के भक्त महात्मा लोग ही किया करते है। जब तक हमारे अन्दर आदर-सत्कार पाने की इच्छा है, तब तक यह बात हम समझ नहीं सकते हैं।

संत कबीर दास जी कहते हैं..........
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय॥

जब तक हम अपने मतलब की बात सोचते रहेंगे तब तक यही दिखलाई देगा कि भगवान ने हमारे को दुःख दे दिया, भगवान ने हमारे साथ यह कर दिया, संत-महात्मा ने यह कर दिया ऎसा उन्हे नहीं करना चाहिये। जब कि वास्तव में दोष हमारा स्वयं का ही है, संसार की वस्तु ही चाहते है। यदि परमात्मा को ही चाहेंगे तो सांसारिक सुख की इच्छा नहीं रहेगी।

जिस दिन परमात्मा को पाने की इच्छा जाग्रत हो जायेगी उसी दिन से संसार से कुछ भी पाने की इच्छा समाप्त हो जायेगी। जब हमें संसार से मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और स्वयं की तारीफ अच्छी न लगे तब समझना चाहिये कि परमात्मा को पाने की इच्छा उत्पन्न हुई है। जब हम परमात्मा को चाहते हैं तब हमें अपमान, दुःख और किसी भी प्रकार की प्रतिकूलता में भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव होता है।

यह बात कुछ ऐसी है..... हमारी समझ में आये या न आये लेकिन महात्माओं से सुना है, जब कभी बीमार पड़ गये और कोई पानी पिलाने वाला न हो तो भी आनंद मिलता है। यदि कोई हमारी सेवा करता है तो वह भी अच्छा नहीं लगता है। यह बात हर किसी की समझ में नहीं आयेगी लेकिन सत्य है। जो जगदीश का प्रेमी होता है उसको जगत के सुख अच्छे नहीं लगते हैं और जिसे सांसारिक सुख अच्छे लगते हैं तो उसको परमात्मा से प्रेम कैसे हो सकता है? इस ज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति व्यक्ति के विवेक जाग्रत होने पर ही मिल सकती है।

श्री राम चरित मानस में तुलसी दास जी कहते हैं.........
बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥

सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है।

भगवान की कृपा निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिये मनुष्य को संसार में भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये ही कर्म करना चाहिये। मनुष्य का संसार में विश्वास पतन का कारण होता है, और ईश्वर में विश्वास शाश्वत-सुख और परम-शान्ति का कारण होता है। हम किसी का कहना मानें यह हमारे वश की बात है, कोई हमारा कहना मानें यह हमारे वश की बात नहीं होती है। इसी प्रकार किसी को सुख देना हमारे हाथ में होता है परन्तु किसी से सुख पाना हमारे हाथ में नहीं होता है। जो हमारे हाथ की बात है, उसे करना ही स्वयं का उद्धार का कारण होती है, और जो हमारे हाथ की बात नहीं है उसे करना स्वयं के पतन का कारण होती है।

यदि हमें परमात्मा की तरफ चलना है तो हमें सांसारिक सुख अच्छे नहीं लगने चाहिए। जब हम पिछले कदम को छोड़ते हैं तभी हम आगे चल पाते हैं, जैसे-जैसे हम पिछले कदमों को छोड़ते जाते हैं उतने ही आगे बढ़ते चले जाते हैं। इस प्रकार से आगे बढ़ते रहने से एक दिन मंज़िल पर पहुँच ही जायेंगे। यदि हम पिछले कदम को छोड़ेंगे नहीं तो आगे नही बढ़ सकते हैं इसी प्रकार हम सांसारिक सुख को छोड़ने की इच्छा करेंगे तभी परमात्मा का आनन्द प्राप्त कर पायेंगे। दो नावों में सवार होकर नहीं चला जा सकता है। एक संसार रूपी भौतिक नाव है, दूसरी परमात्मा रूपी आध्यात्मिक नाव है। जब तक संसार रूपी नाव से नहीं उतरोगे तब तक परमात्मा रूपी नाव पर सवार कैसे हो सकते हैं?

जब संसार के लोग हमारा आदर करते है तो हमें समझना चाहिये कि हमारे ऊपर भगवान की कृपा है। वह हमारा आदर नहीं कर रहें हैं वह तो भगवान का आदर कर रहें होते हैं। जिस प्रकार किसी पद पर आसीन व्यक्ति को कोई सलाम करता है तो वह सलाम उस व्यक्ति के लिये न होकर उस पद के लिये होता है। हमारा आदर तो केवल भगवान ही कर सकते है।

संसार में जब तक किसी व्यक्ति का स्वार्थ नहीं होता है तब तक वह किसी का भी आदर नहीं कर सकता है। आज तक का इतिहास उठाकर देख लो इस संसार से कभी कोई तृप्त नही हुआ है। जो वस्तु जिसके पास अधिक है उसको उसकी उतनी ही अधिक ज़रुरत रहती है। जिसके पास धन अधिक है, उसको और अधिक धन पाने की इच्छा होती है। जिस निर्धन व्यक्ति के पास रुपये नहीं है उसको पचास, सौ रुपये मिल जायेगें तो समझेगा कि बहुत मिल गया लेकिन जो जितना धनवान व्यक्ति होता है उसकी भूख उस निर्धन व्यक्ति से अधिक होती है।

संसार में हमें सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, परन्तु सुख-सम्पत्ति को पाने की इच्छा का त्याग करना चाहिये।

यह इच्छा ही तो हमारे पतन का कारण बनती आयी है। ज्ञान के द्वारा ही संसार का त्याग हो सकता है और सम्पूर्ण विश्वास के साथ ही परमात्मा से प्रेम हो सकता है। जिनसे भी हमारा संसारिक संबन्ध है उन सभी का हमारे ऊपर पूर्व जन्मों का कर्जा है, उन सभी का कर्जा चुकाने के लिये ही तो यह शरीर मिला है। कर्जा तो हम चुकता करते हैं लेकिन साथ ही नया कर्जा हम फिर से चढ़ा लेते हैं। जब तक हम कर्जदार रहेंगे तो मुक्त कैसे हो सकते हैं। यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम इस संसार से नया कर्जा नहीं लेंगे। संसार तो केवल हमसे वस्तु ही चाहता है, हमारे को कोई नहीं चाहता है।

हम सभी के ऊपर मुख्य रूप से दो प्रकार का ही कर्जा है, एक शरीर जो प्रकृति का कर्जा है, दूसरा आत्मा जो परमात्मा का कर्जा है।

इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये। हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये।

यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। यही मानव जीवन की परमसिद्धि है। यही वास्तविक मुक्ति है। यह मुक्ति शरीर रहते हुए ही प्राप्त होती है। इसलिये यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

॥ हम सभी विशुद्ध आत्माऎं हैं ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

(गीताः २/१३)
जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं।

बात त्रेतायुग की है, अष्टावक्र नामक एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि थे, उनका शरीर आठ भागों में टेढ़ा था, जब वह चलते थे तो साधारण लोग उन्हे देखकर हँसते थे, लेकिन वह हृदय से अत्यन्त पवित्र थे, क्योंकि उन्होने अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कर लिया था, वह शरीर और आत्मा का भेद जानते थे।

एक बार महाराज जनक ने ऋषियों की सभा का आयोजन किया, उस सभा में अष्टावक्र ऋषि को भी आमन्त्रित किया, जैसे ही ऋषि ने सभा में प्रवेश किया वहाँ पर उपस्थित सभी सदस्य उनको देखकर हँसने लगे तो उन सभी को हँसते हुए देखकर ऋषि अष्टावक्र भी जोर-जोर से हँसने लगे, सभी सदस्य एक दूसरे से कहने लगे हम सभी उनको देखकर हँस रहे हैं परन्तु वह तो हमसे भी जोर से हँस रहें है, "इसका क्या कारण है?"

यह सब देखकर राजा जनक ने सिंहासन से उठकर नम्रता-पूर्वक ऋषि अष्टावक्र से पूछा, "हे ऋषि आप किस कारण इतनी जोर से हँस रहे है?"

ऋषि अष्टावक्र ने कहा, "मैं सोच रहा था कि मैं ऋषियों-मुनियों की सभा में आया हूँ, परन्तु मैं तो चमड़े के व्यापारी मोचियों की सभा में पहुँच गया हूँ, एक मोची की दृष्टि केवल चमड़े में होती है, अत: मैं देख रहा हूँ कि आप सभी की दृष्टि मेरी नश्वर चमड़ी पर ही है, इसलिये आप मेरी नित्य-आत्मा का दर्शन नहीं कर पा रहे हैं।

आत्मा की उपेक्षा करके बाहरी नश्वर शरीर को महत्व देना अज्ञान है।

ऋषि अष्टावक्र के शब्दों को सुनकर राजा जनक के हृदय में अत्यन्त पश्चाताप हुआ, वह समझ गये कि ऋषि एक आत्मज्ञानी महापुरुष हैं, यही सिंहासन पर बैठाने योग्य हैं, तब राजा जनक ने भाव-विभोर होकर बड़ॆ आदर के साथ सिंहासन पर बैठाकर उन्हे साष्टांग प्रणाम किया और सद्‍गुरु रूप में स्वीकार किया।

शरीर हमारा स्वरूप नहीं है, यह भौतिक शरीर तो हड्डी, खून, माँस का एक घड़ा मात्र है, मन और बुद्धि भी इस शरीर के अंग ही हैं, परन्तु आत्मा इन सबसे अलग है, बुद्धि इस अनित्य संसार को ही सत्य समझती है और मन इन अस्थायी सांसारिक भावों को ही वास्तविक मानता है, जिसके कारण यह क्षणिंक सुख की अनुभूति ही अत्यधिक दुख का कारण बनती है, हम सभी इस शरीर, मन और बुद्धि से अलग आत्मा हैं।

हमारा यह शरीर तो एक पिंजरे के समान जिसमें जीवात्मा रूपी पक्षी संसारिक भोग इच्छा के कारण कैद हो गया है, हमने अपने वास्तविक स्वरूप की उपेक्षा करके पिन्जरे को ही अपना वास्तविक स्वरूप मान लिया है, हमने अपनी सारी शक्ति इस भौतिक पिंजरे को ही संवारने में लगा रखी है, इस पिंजरे के अन्दर बन्द आत्मा की पूर्ण रूप से उपेक्षा कर रखी है, यह पिंजरा-रूपी शरीर, आत्मा-रूपी पक्षी की मुक्ति के लिये प्राप्त हुआ है न कि पिंजरे की देख-भाल के लिए प्राप्त हुआ है।

यदि हम अपना ध्यान इस शरीर पर स्थिर करके यह अनुभव करें कि यह शरीर हमारी वास्तविक पहचान है अथवा नहीं, तब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि "हम इस शरीर को जानने वाले हैं, हम शरीर नहीं हैं।"

इस प्रकार की बुद्धि एक बच्चे को भी होती है, यदि हम बच्चे को उसकी अंगुली पकड़कर पूँछें, "यह क्या है?" तो बच्चे का उत्तर होगा "यह मेरी अंगुली है।" बच्चा यह कभी नही कहेगा कि "मैं अंगुली हूँ", इस शरीर का प्रत्येक अंग मेरा है परन्तु "मैं कहाँ हूँ? यही जिज्ञासा होनी चाहिये।

जहाँ वाणी की पहुँच नही होती है, मन जिसे प्राप्त नहीं कर पाता है, बुद्धि वहाँ पहुँच नही पाती है, ऐसे आत्म-स्वरूप का जो भाग्यशाली मनुष्य साक्षात्कार कर लेता है वह फिर किसी भी सांसारिक वस्तु से भयभीत नहीं होता है, मृत्यु भी उसका कुछ नही बिगाड़ पाती है, मृत्यु शरीर की होती है, आत्म-ज्ञानी उस मृत्यु का भी साक्षात्कार करता है।

"जब तक बुद्धि द्वारा मन शरीर में स्थित रहता है तब तक जीव अज्ञानी ही बना रहता है और जब बुद्धि द्वारा मन आत्मा में स्थित होने लगता है तब जीव का अज्ञान धीरे-धीरे दूर होने लगता है।"

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

॥ इच्छाओं और आवश्यकताओं के भेद ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥

(गीता ३/३७)

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥

(गीता ३/३८)
रजोगुण से उत्पन्न होने वाली इच्छायें (इन्द्रियों विषयों के प्रति आसक्ति) और क्रोध बडे़ पापी है, इन्हे ही इस संसार में अग्नि के समान कभी न तृप्त होने वाले महान-शत्रु समझो, जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और धूल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार गर्भाशय से गर्भ ढका रहता है, उसी प्रकार कामनाओं से ज्ञान ढका रहता है।

इच्छायें और क्रोध ही मनुष्य के महान शत्रु हैं और इनसे बुद्धि में भ्रम उत्पन्न होता है, भ्रम से बुद्धि का नाश होता है, यदि इच्छायें प्रबल होती हैं तो स्मृति क्षीण होती है, स्मृति क्षीण होने से मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है।

प्रत्येक मनुष्य में एक तो अपनी इच्छायें होती है, और दूसरी अपनी आवश्यकतायें होती है, भोजन करना शरीर की आवश्यकता होती है, स्वस्थ शरीर के लिये आवश्यकता के अनुसार भोजन करना चाहिये, यदि अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करोगे तो बीमार तो होना ही पडेगा, जब इच्छानुसार भोजन नहीं मिलता है तो बहुत दुःख होता है और जब इच्छानुसार भोजन तो मिलता है लेकिन खाने की इच्छा नहीं होती है तो कितनी पीड़ा होती है, इच्छापूर्ति से बन्धन उत्पन्न होता है जबकि आवश्यकतापूर्ति से मुक्ति प्राप्त होती है।

इसीलिये संत कबीर दास जी ने कहा है.....

इच्छा काया, इच्छा माया, इच्छा जग उपजाया।
कहत कबीर इच्छा विवर्जित, ता का पार ना पाया॥

सभी मनुष्य जो कुछ करते हैं, अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं करते है, यही गलती करते रहते हैं, यदि इस गलती को हम सुधार लें तो किसी भी क्षेत्र में आसानी से सफल हो सकते हैं, चाहे वह भौतिक क्षेत्र (कुरु-क्षेत्र) हो या आध्यात्मिक क्षेत्र (धर्म-क्षेत्र) हो।

संसार में कोई भी ऎसा मनुष्य नहीं मिलेगा, जिसमें कोई विशेषता न हो, जिसका कोई इष्ट न हो, हर मनुष्य जरूर किसी न किसी को अवश्य ही मानता है, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें जानने की जिज्ञासा न हो, प्रत्येक मनुष्य कुछ न कुछ जानने की कोशिश तो अवश्य करता ही है, किसी मनुष्य में जानने की जिज्ञासा कम होती है तो किसी मनुष्य में जानने की जिज्ञासा अधिक होती है।

प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि द्वारा जानने की, मन के द्वारा मानने की और इन्द्रियों के द्वारा करने की शक्ति प्रदान की है, यदि मनुष्य इस शक्ति का आवश्यकता के अनुसार उपयोग करता है तो आसानी से जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी दुखों से मुक्त हो सकता हैं और यदि इच्छा के अनुसार उपयोग करता है तो करोड़ों जन्मों में भी इन दुखों से मुक्त नही हो सकता हैं।

साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष आवश्यकता के अनुसार कर्म करते हैं जबकि साधारण मनुष्य इच्छा के अनुसार कर्म करते हैं।

संसार में प्रत्येक वस्तु अपूर्ण है।

प्रत्येक मनुष्य क्षणिक सुख की इच्छा करता है जबकि मनुष्य को कभी न मिटने वाले आनन्द की आवश्यकता है। मनुष्य जब सुख की इच्छा करता है तो दुख की प्राप्ति आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब जीवित रहने की इच्छा करता है लेकिन मरना जीवन की आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब मान की इच्छा करता है तो अपमान सहन करना आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब किसी को अपना बनाने की इच्छा करता है तब अन्य कोई पराया बनना आवश्यकता बन जाती है।

मनुष्य की आवश्यकतायें प्रकृति के सहयोग से आसानी से पूरी हो जाती है लेकिन सभी इच्छायें कभी पूरी नहीं होती है, बच्चा माँ की गोद में आता है तो उस बच्चे की आवश्यकता दूध होती है तो प्रकृति के सहयोग से दूध तैयार हो जाता है, जब बच्चा बड़ा होता है और उसकी आवश्यकता होती है दाँतों की तो उस बच्चे के दाँत आ जाते हैं।

मनुष्य को वायु, जल और अन्न की आवश्यकता होती है, यह सभी आवश्यकतायें आसानी से पूरी हो जाती है, जब मनुष्य मिठाई, नमकीन, तम्बाकू और शराब आदि की इच्छा करता है तो यह इच्छायें ही मनुष्य के जीवन के विनाश का कारण बनती हैं, शरीर को जीवित रखने के लिये इन वस्तुओं की कोई आवश्यकता नही होती है, इच्छाओं की पूर्ति दुख-पूर्वक होती है जबकि आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से हो जाती है।

जब मनुष्य आवश्यकताओं को अज्ञानतावश इच्छायें समझ लेता है तब अनेकों नई इच्छायें उत्पन्न हो जाती है जो कि पुनर्जन्म का कारण होती है, आवश्यकतापूर्ति से ही इच्छाओं की निवृत्ति हो सकती है, इच्छापूर्ति से कभी भी इच्छाओं से निवृत्ति नही हो सकती है।

इच्छा के अनुसार सभी वस्तुयें कभी प्राप्त नही होंगी, इच्छा के अनुसार सभी आपकी बात नहीं मानेंगे, इच्छा के अनुसार सदा तुम्हारा शरीर नहीं रहेगा, शरीर चला जायगा अन्त में इच्छायें रह जायेंगी, अपनों के सुख की इच्छा, धन-सम्पत्ति की इच्छा, पद-प्रतिष्ठा की इच्छा, आदि यह सभी इच्छायें ही पुनर्जन्म का कारण बनती हैं।


जब तक इच्छायें बाकी रहती हैं तब तक मुक्ति असंभव होती है।


॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

॥ अनन्य भक्ति ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥

(गीताः १३/११)

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
(गीताः १३/१२)
बिना किसी व्यवधान के अनन्य भाव से मेरा चिंतन करना, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा करना, किसी भी प्राणी के प्रति आसक्ति का न होना, आत्मा को जानने की इच्छा करना तथा परम-तत्व को प्राप्त करने की इच्छा का होना, यह सब तो ज्ञान है और इनके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह सब अज्ञान है।

जिस मनुष्य का विवेक जाग जाता है, उसके लिए परमात्मा की प्राप्ति आसान हो जाती है, वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का सार है, भगवान की कथा ही कथा है...... बाकी सब इस जग की व्यथा है।

भगवान के चिंतन, भगवान के ज्ञान, भगवान के ध्यान के अलावा जिसको बाकी सब व्यर्थ लगता है, ऐसे साधक की ही अनन्य भक्ति जगती है, जिसका भगवान के प्रति अनन्य-भाव स्थिर हो गया है, ऎसे भक्त की अन्य किसी से संपर्क रखने की इच्छा नहीं रहती है।

जो लोग सामान्य इच्छाओं को पूर्ण करने में लगे रहते है, सामान्य विषय भोगों को भोगने में अपना जीवन नष्ट करते है, ऐसे लोगों के प्रति सच्चे भक्त को कोई रूचि नहीं होती है, पहले कभी रूचि हुई तब हुई, लेकिन जब अनन्य भक्ति मिलती है तो फिर उदासीनता आ जाती है, वह भक्त सोचता है की सामाजिक व्यवहार चलाने के लिए लोगों के साथ हूँ, वह किसी भी बात का विरोध नहीं करता है, उनकी हाँ में हाँ और उनकी न में न करता है लेकिन मन से महसूस करता है कि यह सब जल्दी निपट जाय तो अच्छा हो।

जिस भक्त के हृदय में अनन्य भक्ति प्रकट होती है, उसके द्वारा पहले जो कुछ किया गया होता है, वह सब उसे अचेत अवस्था में किया हुआ सा लगता है, उसे एकान्त स्थान में रहने की इच्छा उत्पन्न होती है, तब वह भक्त सभी प्राणीयों से दूर रहने लगता है, जो लोग शरीर के लिये कर्म करते हैं वह लोग उस भक्त को बाधक लगते है।

जिस भक्त को ब्रह्म अनुभूति के द्वारा आत्म ज्ञान मिलता है, वह शरीर को भुलाने का अभ्यास करता है, जैसे-जैसे शरीर को भूलने लगता है वैसे-वैसे ही उसे भगवान का ज्ञान दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगता है तभी उसे वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है, तब उसे सभी सांसारिक सुख व्यर्थ लगने लगते है।

जिस भक्त को परमात्मा-प्राप्ति के लिये तड़प उत्पन्न होती है, तब वह अनन्य भाव से भगवान को तीव्रता से भजने लगता है, तब वह भगवान से भगवान को ही चाहता हैं और कुछ नहीं चाहता है.....

ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति जिसके हृदय में उत्पन्न होती है, उसके हृदय में भगवान ज्ञान का प्रकाश भर देते हैं, तब वह भगवान के बल पर ही भगवान को प्राप्त करना चाहता हैं, भगवान की कृपा से ही भगवान को प्राप्त करने वाले ही भगवान की अनन्य भक्ति को प्राप्त कर पाते हैं।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥